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बड़े चतुर बनते हो मानव, कहाँ गई सारी चतुराई।
तन मन के तुम रोगी भोगी, कर्म सभी करते दुखदाई॥
नदिया हर मौसम बहती थी, उसकी धारा मोड़ दिये।
ब्लास्ट किये जंगल भी काटे, सारे पर्वत तोड़ दिये॥
मनमाना उद्योग लगाये, धुँआ विषैली गैस बढ़ाये।
वातावरण प्रदूषित कर दी, फसलों में भी जहर मिलाये॥
वन उपवन बरबाद किये, गमलों में पेड़ लगाते हो।
कंकरीट के वन में रहकर, गर्मी से घबराते हो ??
मानव जन्म मिला है लेकिन, दानव जैसा कर्म किया।
भस्मासुर बन गये स्वयं ही, और धरा को नर्क किया॥
आस्तिक से नास्तिक बन बैठे, अहंकार में जब तुम आये।
जैसे पागल मानव कोई, खुद ही घर में आग लगाये॥
कूप नदी तालाब सभी का, दूषित है सारा जल देखो।
काँप गई भूकम्प से धरा, पाप किये उसका फल देखो॥
अल्प ज्ञान पर अभिमानी हो, विनाशकारी मति पाई है।
बरबाद कर दिये पुण्य धरा, अब नजर चांद पर आई है॥
आधी धरती वन में बदलो, हरा भरा हर नगर गाँव हो।
जहर उगल न पाये चिमनियाँ, नदी ताल हर जगह छाँव हो॥
आने वाली पीढ़ी वरना, श्वास सहज ना ले पाएगी।
खर्च दवा पर लाखों होगा, किंतु मौत जल्दी आएगी॥
-अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
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