✍️मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री
ईरान द्वारा ईरानी दूतावास पर हमले के बाद पर किये गए भीषण हमले से पूरा विश्व खौफ में है।
ईरान-इजरायल के बीच छिड़ा यह युद्ध न्याय, नीति और धर्म के लिए नहीं हो रहा है। वास्तव में यह युद्ध वर्चस्व की लड़ाई है। सत्ता के लिए किए जाने वाला संघर्ष है। जिसमें धर्म को केवल एक ढाल के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
दरअसल, यह युद्ध ईरान के इस्लामिक देशों का ख़लीफ़ा बनने की महत्वाकांक्षा का दुष्परिणाम है। जिसे चंद इस्लामिक कट्टरपंथी और चरमपंथी गुटों का आश्रय मिला हुआ है।
इस्लामिक जगत की ख़िलाफ़त की इस जंग में टर्की, पाकिस्तान, सऊदी अरब और ईरान शामिल हैं। जो प्रत्यक्ष रूप में तो भले ही एकजुट नज़र आ रहे हैं, लेकिन अंदरखाने सब एक-दूसरे की मुख़ालफ़त में हैं।
सऊदी अरब, टर्की और पाकिस्तान किसी भी सूरत में ईरान को अपना ख़लीफ़ा नहीं मानेगा। यह बात पूरे इस्लामिक जगत में खुली किताब की तरह है।
ईरान की मंशा है कि वह येन-केन प्रकारेण इजरायल को दबाव में लेकर सम्पूर्ण इस्लामिक जगत में अपनी धाक जमा लेगा। परन्तु वह भूल रहा है कि इजरायल में भी नेतृत्व परिवर्तन की बड़ी लहर चल रही है, और बेंजामिन नेतन्याहू किसी भी सूरत में इजरायल में चुनाव नहीं चाहते हैं।
उनकी भी यही मंशा है कि वह इस्लामिक कट्टरपंथी ताकतों को मुहंतोड़ जवाब देकर इजरायली जनता के मन में जगह बना लें, और इजरायल में नेतन्याहू के विरोध में उठ रही आवाजों को मिसाइलों और फाइटर प्लेनों के शोर में दबा दिया जाए।
पूरे विश्व के समक्ष यही चिंता का सबसे बड़ा प्रश्न है कि दोनों ही ओर से कोई भी शांति की पहल करने को तैयार नहीं है।
उधर यूक्रेन भी अपनी रक्षा चाहता है और वह लगातार अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस पर दबाव बनाने का प्रयास कर रहा है।
चीन और रूस इस परिस्थिति का लाभ उठाने की हरसम्भव कोशिश में हैं। चीन और रूस अमेरिका की दादागिरी को ख़त्म तो करना चाहते हैं लेकिन सीधे रूप से कोई टकराव नहीं चाहते।
लेकिन ईरान को यह समझना होगा कि यदि इजरायल और ईरान में युद्ध होता है तो सबसे ज़्यादा नुकसान ईरान का ही होगा। और सऊदी अरब, टर्की और पाकिस्तान जैसे देश यही चाहते हैं।
✍️समाचार सम्पादक, हिंदी समाचार-पत्र,
उगता भारत
👉यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं, इनसे आपका सहमत होना, न होना आवश्यक नहीं है।