एक बहुत बड़ा प्रश्न है कि अगर मुसलमान मांस नहीं खायेगा तो क्या वह मुसलमान नहीं रहेगा? सवाल बहुत छोटा सा है लेकिन उसका उत्तर उतना आसान नहीं है।
केवल मांस खाना ही इस्लाम नहीं है
दरअसल, केवल मांस खाना ही इस्लाम नहीं है, यह बात इस देश का हर मुसलमान जानता और समझता है। यहां यह भी समझने वाली बात है कि रमज़ान माह में मांस से न तो सहरी (सुबह का नाश्ता) होता है औऱ न ही इफ़्तार (शाम का )। लेकिन इस सबके बावजूद जिन्नावादी लॉबी और बाबरभक्तों की फौज रमज़ान में मांस को लेकर हायतौबा मचा रहे हैं और नवरात्रि के पावन पर्व पर मांसबन्दी को इस्लामिक आस्था से जोड़कर चल रहे हैं।
कलतक शाहीन बाग में मांस पका रहे थे
यह वही लोग हैं जो कल शाहीन बाग में डेरा डालकर बैठे थे और मुर्ग-मुसल्लम चबा रहे थे। इस शाहीन बाग के कथित आंदोलन के कारण हजारों-लाखों को मजदूरों-दुकानदारों की रोजी-रोटी पर जवाल आ गया था, लेकिन तब इन्हें किसी की कोई चिंता नहीं थी क्योंकि “इस्लाम खतरे में है” का नारा बुलन्दी पर था।
टीवी चैनलों पर आने के लिए तिकड़में लगाते हैं
यह वही लोग हैं जो टीवी डिबेट्स में भाग लेने के लिए सिफारिशें लड़ाते हैं, जबकि इस्लामिक कानून के अनुसार टीवी पर आना गुनाह है।
सुरक्षाबलों पर पत्थर बरसाते हैं
यह लोग देश के सुरक्षाबलों पर पत्थर बरसाते हैं और उनको जान से मारने की नीयत से धारदार हथियारों की भीड़ लेकर हमला बोलते हैं।
जिन्नावादियों की फ़ौज
यह वही लोग हैं जो अपने शिक्षण संस्थानों में भारतवर्ष के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगाते हैं और टुकड़े-टुकड़े गैंग के सरगना और आदर्श मौहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को सीने से लगाये घूमते हैं।
यह वही लोग हैं जो आतंकियों को क्रांतिकारी बताते हैं और आतंक को क्रांति का हिस्सा मानते हैं। यह वही लोग हैं जो “जिन्ना वाली आज़ादी” की मांग करते हैं।
यह वही लोग हैं जो आतंकियों के मारे जाने पर छातियाँ पीटकर विधवा विलाप करते हैं लेकिन अपने ही देश के वीर सपूतों की शहादत पर जश्न मनाते हैं।
इनके बच्चे इंग्लिश कॉन्वेंट में पढ़ते हैं
यह वही लोग हैं जिनके बच्चे इंग्लिश कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं और यह मदरसों में इंग्लिश पढ़ाने पर अपने बाल नोंचने लगते हैं।
मुहं में संविधान और बगल में शरीयत
यह वही लोग हैं जो मुहं से देश के संविधान की दुहाई देते हैं लेकिन अपनी बगल में मज़हबी कानूनों की किताब दबाए घूमते हैं।
ब्याजखोर और सूदख़ोर
यही वह लोग हैं जो रात को चोरी-छुपे महंगे नाइट क्लबों में जाते हैं, विदेशी बैंकों में पैसा जमा कर मोटा ब्याज़ कमाते हैं, शेयर-बाजार और सट्टे पर रकम लगाते हैं। जानवर में हलाल और हराम ढूंढते हैं लेकिन माल कमाने में इन्हें न हराम दिखाई देता है और न हलाल।
मांस का कोई सम्बन्ध इस्लामिक आस्था से नहीं
मांस खाने से न कोई मुसलमान बनता है और मांस न खाने से कोई इस्लाम से ख़ारिज भी नहीं हो सकता है। मांस की दुकानें बंद होने से इस्लाम खतरे में नहीं आता लेकिन मज़हब की आड़ में अपना राजनीतिक धंधा चलाने वालों की दुकानों के बन्द होने का ख़तरा जरूर मंडराता है। एक आम मुसलमान शर (झगड़ा) नहीं चाहता। वह अपनी आस्था के साथ-साथ दूसरों की आस्था का भी सम्मान चाहता है। लेकिन दिक़्क़त जिन्नावादियों को है।
मांसबन्दी के साथ-साथ शराबबंदी भी होनी चाहिए
हालांकि हम इस बात को भी जरूर कहना चाहेंगे कि नवरात्रि के पवित्र अवसर पर मांसबन्दी के साथ-साथ शराबबंदी भी होनी चाहिए।