बुरा मानो या भला
भारत में जब कोरोना काल पड़ा था। तब ऐसे कई तथाकथित समाजसेवियों और छुटभैये नेताओं को अपनी जिम्मेदारियों से दुम दबाकर भागते हुए हमने देखा है। जो आजकल जनता के “स्वघोषित मसीहा” बने हुए हैं।
लोग एक-एक सांस के लिए तरसते रहे
हमने देखा है कि कौन कितना बड़ा तुर्रमशाह है। कितने ही लोग ऑक्सीजन के सिलेंडर की तलाश में दर-दर भटकते रहे। उनके परिजन-स्वजन एक-एक सांस के लिए तरसते रहे। कुछ लोग अपने घरों में कैद भूखे प्यासे बैठे रहे। उन्हें न खाने को कुछ था और न ही पीने के लिए कोई व्यवस्था।
बाहर पुलिस के डंडे और घर में चीत-पुकार
दिहाड़ी मजदूर, गरीब रिक्शाचालक और मजदूर। ये सभी अपने घरों में कैद थे, बाहर पुलिस के डंडे और घर में भूखे बच्चों का करुण क्रंदन और पत्नी की करुण पुकार। हृदय को झकझोर देती थी। तब कई कायर और नपुंसक अपने एयरकंडीशनर कमरों में बैठे विहस्की की चुस्कियों के साथ भुने हुए काजू गटक रहे थे।
आज चौराहों पर महान समाजसेवी बने हैं
यह वही लोग थे जो आज चौराहों पर अपने बड़े-बड़े पोस्टर लगाकर अपने को “महान समाजसेवी” और “नेताजी” सिद्ध करने में लगे हैं। कोरोना काल में यदि इन स्वयंभू समाजसेवियों और फर्जी नेताओं ने अपनी काली कमाई का थोड़ा-थोड़ा सा अंश भी गरीब और लाचार जनता के लिये निकाला होता तो शायद उन हजारों-लाखों निर्दोष और मासूम लोगों की जान बच जाती। जिन्होंने भूख, प्यास और उचित ईलाज के अभाव में दम तोड़ दिया।
मुनाफाखोरी की काली कमाई से अपनी तिजोरियां भर रहे थे
उस समय यह हैवान अपने एयरकंडीशनर कमरों में खूबसूरत शबाब की बगल में बैठे शराब की चुस्कियों के साथ लुटियन मीडिया को इंटरव्यू देते हुए राज्य और केंद्र सरकारों को कोस रहे थे। और कालेधंधों कालाबजारी, भ्रष्टाचार और मुनाफाखोरी की काली कमाई से अपनी तिजोरियां भर रहे थे।
जाति-मज़हब में बाँट दिया है
मज़े की बात यह है कि इस काली कमाई का कोई रंग था, न रूप, न जाति, न सम्प्रदाय, न धर्म और न मज़हब। आज इन्होंने पूरे समाज को जाति-सम्प्रदाय और मज़हब में बांटकर रख दिया है। जब जनता को इनकी जरूरत थी तब यह अपने बिलों में बैठे थे और आज एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप कर, राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं।
इस हमाम में सब नंगे हैं
यह तमाम राजनैतिक गिद्ध किसी पार्टी/संगठन विशेष के नहीं हैं, बल्कि हर पार्टी और हर संगठन में इनकी खासी संख्या है। इस हमाम में सभी नंगे हैं। गिद्धों का कोई धर्म नहीं होता और न ही कोई जाति होती है।
जनता इन गिद्धों से हिसाब मांगे
आज जरूरत है कि जनता इन गिद्धों से यह हिसाब मांगे कि उन्होंने कितनी लाशों को नोच-नोचकर खाया था। कितने जिंदा लोगों को भूख-प्यास से तड़प-तड़पकर मौत के आगोश में जाते हुए देखा था।
जाति-मज़हब की हड्डियां जो फेंक दी हैं
लेकिन विडम्बना यह है कि जनता कोई हिसाब नहीं मांगेगी। क्योंकि इन राक्षसों ने उनके सामने जाति-धर्म की हड्डियां जो फेंक दी हैं। समाज के ठेकेदारों ने शराब के नशे और चंद चांदी के सिक्कों की खनखनाहट की आवाज़ में उन तमाम चीखों और चीत्कारों को लगभग दबा सा दिया है। जो कोरोना काल में हमारे ही किसी स्वजन की रही होगी।
यह भारत है साहब, यहां सब चलता है
यह भारत है साहब, यहां सबकुछ चलता है। यहां के कुछ लोगों को हड्डियां चबाकर दुम हिलाने की आदत सी जो पड़ गई है।