बॉलीवुड में लैला-मजनूं, हीर-रांझा, जोधा -अकबर और अलाउद्दीन खिलजी सहित तमाम ऐसे विषयों पर फिल्में बनाई गई हैं जिनमें वास्तविकता से छल-फरेब करते हुए तथ्यों को बहुत तोड़-मरोड़कर दिखाया गया।
बॉलीवुड का दोगलापन
सलीम-जावेद के कलम से कई ऐसी फिल्मी कहानियां निकली हैं। जिनमें पुरोहितों-पंडितों को पाखंडी और धूर्त, क्षत्रिय समाज को जुल्मी और अय्याश, वैश्य समाज को लालची, भ्रष्ट और बेईमान दिखाये जाने का प्रयास किया गया है। जबकि बॉलीवुड ने मुसलमान को पांचों वक़्त का नमाज़ी-परहेजगार, बात का धनी, शरीफ़ और ईमानदार दिखाया गया है। क्या यह बॉलीवुड का दोगला व्यवहार नहीं है।
बॉलीवुड ने ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की है
PK सहित ऐसी तमाम फिल्में बनी हैं जिनमें हिन्दू देवी-देवताओं, हिन्दू आस्था और परम्पराओं पर कुठाराघात किया गया है। क्या ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ करने का अधिकार केवल और केवल जिहादियों और वामपंथी फिल्मकारों को ही है। आज तक ऐसा होता रहा है।
बॉलीवुड ने मुगल आक्रांताओ को महान बताया
जोधा-अकबर जैसी फिल्मों के माध्यम से मुगल बादशाह अकबर को कोमल हृदय, बहादुर और बुद्धिमान सिद्ध करने का हरसम्भव प्रयास किया गया है। जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत रही है। अकबर एक नम्बर का अय्याश, क्रूर, हिन्दुविरोधी, कट्टरपंथी और जाहिल इंसान था। लेकिन इस सबके बावजूद उसको “महान” बनाने की हरसम्भव कोशिश की गई।
बॉलीवुड जिहादियों की रखैल बना हुआ था
सच पूछिए तो द अभी तक ऐसा लगने लगा था कि मानो बॉलीवुड मुट्ठी पर जिहादियों, माफियाओं और “त्रिमूर्ति खान गैंग” की रखैल बन चुका है। लेकिन विवेक अग्निहोत्री ने जो कदम उठाया है वह न केवल वीरता भरा है अपितु सत्य, न्याय, धर्म और नीति के मार्ग पर ले जाने का सफल प्रयास है।
पिक्चर तो अभी बाकी है दोस्त
“द कश्मीर फाइल्स” बॉलीवुड के सतयुग का शुभारंभ है। यह तो सिर्फ एक ट्रेलर है। पिक्चर तो अभी बाकी है मेरे दोस्त।।
अभी तो 1990 में श्री अयोध्या में श्रीराम भक्तों पर हुए गोलीकांड, 2002 में गुजरात के गोधरा कांड के अतिरिक्त 1966 में हुए निर्दोष गोभक्तों की निर्मम हत्या पर भी फ़िल्म बननी है।
द कश्मीर फाइल्स छद्दम धर्मनिरपेक्षता, खोखरे समाजवाद और झूठी गंगा-जमुनी तहज़ीब के गाल पर करारा तमाचा है।
कई चेहरों को बेनकाब किया है
यह वह कड़वी सच्चाई है जो कांगी-वामी और जिन्नावादियों के हलक से नहीं उतर सकती।
इस फ़िल्म ने यह जता दिया कि आतंक औऱ आतंकियों दोनों का मज़हब होता है। इस फ़िल्म ने कई चेहरों को बेनकाब ही नहीं किया बल्कि उनके घिनौने चेहरों और घृणित मानसिकता को भी उजागर कर दिया है।
आज जो लोग इसका विरोध यह कह कर रहे हैं कि इस फ़िल्म से समाज में वैमनस्य, घृणा और साम्प्रदायिकता फैल सकती है। उन तमाम लोगों को यह भी बताना चाहिए कि 32 वर्षों तक इन सेक्युलर दलालों, अलगाववादी नेताओं और आतंकभक्तों को कश्मीरी पंडितों, सिखों के दर्द का अहसास क्यों नहीं हुआ। आखिर इस फ़िल्म की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? इस प्रश्न का उत्तर है किसी कांगी-वामी के पास??
जय हो शास्त्री जी आपका लेख लोगों को जगाने का काम करेगा आप प्रशंसा के पात्र है.. जय हिंद