महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण के लिए सदा ही दुर्योधन और दुःशासन को दोष दिया जाता रहा है।
परन्तु कभी किसी ने इस बात पर भी विचार किया है कि यदि धर्मराज कहे जाने वाले महाराज युधिष्ठिर और उनके शूरवीर भाइयों ने जुए में द्रौपदी को दांव पर नहीं लगाया होता तब क्या चीरहरण सम्भव हो पाता?
जिस स्त्री ने अपने घरबार को छोड़कर पूरे विश्वास के साथ अपनी अस्मिता, अपना मान-सम्मान पाण्डव भाइयों के हाथों में सौंप दिया, उसी के साथ विश्वासघात किया गया।
जिन पांडवों को द्रौपदी ने अपना भविष्य सौंप दिया, जिन लोगों को अपना रक्षक माना, उन्हीं पांडवों ने अपनी ही अर्धांगनी, अपनी शरणागत द्रौपदी को दांव पर लगा दिया। सत्ता सुख पाने के लिए जुआ खेला और दांव पर लगा दिया, अपनी ही पत्नी को। क्यों? क्या युधिष्ठिर और उनके भाइयों को यह अधिकार था कि वह उस द्रौपदी को अपनी जागीर समझ लें जो उनकी पत्नी थी?
जिस प्रकर सत्ता सुख भोगने के लिए धर्मराज माने जाने वाले युधिष्ठिर और उनके वीर पांडव भाइयों ने द्रौपदी को दांव पर लगा दिया और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे महान शूरवीर और बुद्धिजीवी चुप्पी साधे रहे, जिसके चलते द्रौपदी का अपमान हुआ, उसकी अस्मिता को नँगा करने का दुस्साहस किया गया, ठीक उसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगियों ने भी सत्ता सुख के लिए सवर्ण समाज को दांव पर लगा दिया, और आज के भीष्म पितामह आदरणीय मोहन भागवत, द्रोणाचार्य राजनाथ सिंह और कृपाचार्य अरुण जेटली चुप्पी साधे सबकुछ होता हुआ देखते रहे।
किसी ने भी इस अन्याय का विरोध नहीं किया, कोई भी कुछ नहीं बोला। द्रौपदी तब भी लाचार नहीं थी, उसने तब भी इस अन्याय का विरोध किया था और आज भी लाचार नहीं है।
तबका धृष्टर्राष्ट्र, पुत्रमोह में अंधा हो गया था और आज का धृष्टर्राष्ट्र सत्ता के मोह में अंधा है। किंतु इतिहास अपने को दोहराता है, तब भी धृष्टर्राष्ट्र को मुंह की खानी पड़ी थी और आज भी उसे मुहं की ही खानी पड़ेगी।
महाभारत होगा और निश्चित रूप से होगा, युद्ध होगा, धर्मयुद्ध होगा, फिर से शंखनाद गूंजेगा, फिर से गर्जना होगी। धृष्टर्राष्ट्र को हारना ही होगा।
अपमान चाहे मजबूर द्रौपदी का हो या लाचार जनता का, अपमान तो हुआ है, हो रहा है। दंड तो मिलेगा, जरूर मिलेगा।
जिन्होंने धृष्टर्राष्ट्र का अन्न खाया है, जिन्होंने अपने राजा के प्रति निष्ठावान होने की शपथ ली है, वह भले ही मजबूर हो गए हों किन्तु द्रौपदी अबला नहीं है, जनता कमज़ोर नहीं है। उसने केश खोल लिए हैं।
प्रतीक्षा मात्र शंखनाद की है, चुनावी शंखनाद की। अहंकार तो टूटेगा, निःसन्देह टूटेगा।
*-मनोज चतुर्वेदी शास्त्री*
स्वतंत्र पत्रकार एवं राजनीतिक-सामाजिक टिपण्णीकार