अमेरिका में रहने वाले मानवशास्त्री बालमुरली नटराजन और भारत में उनके अर्थशास्त्री सहयोगी सूरज जैकब का एक अध्ययन कहता है कि २३ से ३७ प्रतिशत वाला अनुपात भी “सांस्कृतिक राजनैतिक दबाव” के कारण बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है. अप्रैल २०१८ में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक सच्चाई यह है कि केवल २० प्रतिशत भारतीय अब शाकाहारी है. हिन्दू अब सबसे बड़ा मांसाहारी वर्ग बन गये हैं. भारतीय लोगों के स्वास्थ्य बारे में अपने एक विश्लेषण में “इंडिया स्पेंड” का कहना है कि ८० प्रतिशत भारतीय पुरुषों और ७० प्रतिशत महिलाओं को यदि हर सप्ताह नहीं, तब भी बार-बार किसी न किसी मांसाहार का चस्का लगने लगा है. आय के साथ संपन्नता में वृद्धि सराहनीय तो है, पर साथ ही शाकाहार पर मांसाहार के बढ़ते हुए वर्चस्व को लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा के लिए तेजी से बढ़ते हुए खतरे के रूप में भी देखने की आवश्यकता है. इसे समझने के लिए हमें विज्ञान में हुई नई खोजों और उन पश्चिमी देशों के अनुभवों पर नजर डालनी होगी, जहाँ के लोग अपने स्वास्थ्य और पर्यावरण के प्रति चिंता के कारण मांसाहार से दूर हटने लगे हैं.
यूरोप में सर्वोच्च जीवनस्तर वाले देशों के एक सर्वे में जर्मनी तीसरे नम्बर पर था. पूरी तरह मांसाहारी संस्कृति और परम्परा वाले जर्मनी में अब कम से कम १० प्रतिशत लोग पूरी तरह शाकाहारी बन गए हैं. कुछ तो इतने विशुद्ध या कट्टर शाकाहारी बन गये हैं कि वे दूध-दही-मक्खन जैसी उस हर चीज से परहेज करते हैं, जो पशुओं या मधुमखियों जैसे जीव-जन्तुओं से मिलती है. ऐसे लोगों के लिए १९४४ में अंग्रेजी में “वीगन” नाम का एक नया शब्द गढ़ा गया था. सुपर बाजारों में वीगनवादियों के लिए अलग से स्टैंड बनने लगे हैं और उनके लिए विशेष रेस्तरां भी खुलने लगे हैं.
मांसाहार के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि हमारा शरीर पशु-पक्षियों के मांस के रूप में वह सब लगभग बना-बनाया पाता है, जो उसे अपनी ऊर्जा और शारीरिक विकास के लिए चाहिए. यह मांस उस जैविक संरचना से बहुत मिलता-जुलता है, जो हमारे शरीर की अपनी जैविक संरचना भी है, जबकि पेड़-पौधों की जैविक संरचना बहुत भिन्न प्रकार की होती है. हमारा शरीर जैविक संरचना में काफी समानता के कारण जिस सीमा तक मांसाहार को पचाकर सोख लेता है, उसी सीमा तक वह शाकाहार को पचाकर सोख नहीं कर पाता. यह बात सच है कि हमारी आंतें किसी मांस में निहित २० प्रतिशत तक लोहा सोख लेती हैं, जबकि दालों और अनाजों में निहित लोहे की वे केवल तीन से आठ प्रतिशत मात्रा ही सोख पाती हैं. लेकिन इस मात्रा को भोजन के साथ ऐसे फल आदि खाने से बढ़ाया जा सकता है. जिनमें विटामिन-सी की अधिकता हो. यानि, लोहे के लिए मांस खाना जरूरत कम, बहाना अधिक है.
मांसाहार के कुछ फायदों के बावजूद जर्मनी के आहार-विशेषज्ञों की संस्था “डीजीई” की सलाह है कि वयस्कों को एक सप्ताह में ६०० ग्राम से अधिक मांस नहीं खाना चाहिए. इस संस्था के आहार वैज्ञानिक मार्कुस केलर कहते हैं, “वास्तव में समझबूझ के साथ जुटाए गए शाकाहार से भी सभी आवश्यक पोषक तत्व मिल सकते हैं. उदहारण के लिए उनमें उच्च रक्तचाप और रक्तवसा (कोलेस्ट्रोल) को घटाने वाले और पाचनक्रिया पर अनुकूल प्रभाव डालने वाले ऐसे माध्यमिक पदार्थ भी हो सकते हैं, जो केवल शाकाहार में ही सम्भव हैं.” इस संस्था के विशेषज्ञों का कहना है कि शाकाहार में भी उन विटामिनों और सूक्ष्म मात्रा वाले खनिज तत्वों के विकल्प उपलब्ध हैं, जिन्हें मांसाहार की विशेषता बताया जाता है.
उदाहरण के लिए पालक में लोहा ही नहीं कैल्शियम भी होता है. यही कैल्शियम करमसाग और बथुआ में भी होता है. दालों से भी लोहे की सारी कमी पूरी जा सकती है. आयोडीन के लिए वाला नमक लिया जा सकता है. जस्ता मिलेगा गेंहू और जौ के चोकरदार आटे तथा कुम्हड़े (कद्द) की बीज में. विटामिन बी-२ और विटामिन-डी मशरूम में मिलता है.
उदाहरण के लिए पालक में लोहा ही नहीं कैल्शियम भी होता है. यही कैल्शियम करमसाग और बथुआ में भी होता है. दालों से भी लोहे की सारी कमी पूरी जा सकती है. आयोडीन के लिए वाला नमक लिया जा सकता है. जस्ता मिलेगा गेंहू और जौ के चोकरदार आटे तथा कुम्हड़े (कद्द) की बीज में. विटामिन बी-२ और विटामिन-डी मशरूम में मिलता है.
अमेरिका में हारवर्ड विश्वविद्यालय के महामारी विशेषज्ञों ने १२ लाख लोगों पर हुए २० अध्ययनों का विश्लेष्ण किया. २०१२ में उन्होंने बताया कि रेड मीट को यदि औद्योगिक ढंग से प्रसंस्कृत किया गया है, तो ऐसे मांस की प्रतिदिन केवल ५० ग्राम मात्रा भी हृदयरोगों की सम्भावना ४२ प्रतिशत और मधुमेह की सम्भावना १९ प्रतिशत बढ़ा देती है. अनुमान है कि ऐसा सम्भवतः नमक, नाइट्रेट और उन अन्य पदार्थों के कारण होता है, जो प्रसंस्करण के दौरान मांस में मिलाये जाते हैं. यूरोपीयन पर्सपेक्टिव इन्वेस्टिगेशन इनटू कैंसर नाम के इस अध्ययन में पाया गया कि जो लोग प्रतिदिन १०० ग्राम “रेड मीट” खाते हैं, उनके लिए आंत का कैंसर होने का खतरा ४९ प्रतिशत तक बढ़ जाता है.
जर्मनी के गीसन विश्वविद्यालय, हाईडेलबेर्ग के परमाणु शोध संस्थान और जर्मन स्वास्थ्य कार्यालय ने १९८० वाले दशक में शाकाहार के लाभ-हानि के बारे में एक-दुसरे से अलग तीन बड़े अध्ययन किये. वे ये देखकर चकित रह गए कि शाकाहारियों का रक्तचाप और शारीरिक वजन बहुत अनुकूल पाया गया. उन्हें कैंसर और हृदयरोग होने की सम्भावना बहुत कम थी और उनके दीर्घजीवी होने की सम्भावना उतनी ही अधिक. लन्दन के स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रोपिकल मेडिसिन ने भी ११ हजार शाकाहारियों के साथ १२ वर्षों तक चला एक ऐसा ही अध्ययन किया. इस अध्ययन के परिणाम भी, १९८० वाले दशक में जर्मनी में हुए, वर्णित परिणामों जैसे ही निकले.
लन्दन के शोधकर्ताओं ने पाया कि शाकाहारियों में रक्तचाप, कोलेस्ट्रोल और यूरिक एसिड का स्तर मांसाहारियों से बेहतर निकला. उनके हृदय और गुर्दे मांसाहारियों की अपेक्षा अधिक थे. शाकाहारियों के बीच मृत्यु दर मांसाहारियों की तुलना में २० प्रतिशत कम और कैंसर होने के मामले ४० प्रतिशत कम देखे गए. अध्ययनकर्ताओं ने यह भी कहा कि अध्ययन में शामिल शाकाहारियों में विटामिन, प्रोटीन या खनिज तत्वों जैसी किसी भी महत्वपूर्ण चीज का अभाव नहीं था. उनका स्वास्थ्य औसत से कहीं बेहतर था.
अमेरिका का राष्ट्रीय कैन्सर संस्थान (एनसीआई) हाल ही में इस नतीजे पर पहुंचा है कि मांसाहार कैंसर, हृदयरोगों, सांस की बीमारियों, ब्रेन्हेम्रेज, मधुमेह, अल्जाइमर, यकृत और गुर्दे की बीमारियों जैसी कम से कम नौ प्रकार की बीमारियों का कारण बन सकता है. अमेरिका की ही “युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयार्क” के शोधकर्ताओं को सामान्य शाकाहारियों और वीगन कहलाने वाले परम शाकाहारियों के पाचनतन्त्र की आंतों में, मांसाहारियों की आँतों की अपेक्षा, ऐसे बैक्टीरिया अधिक मात्रा में मिले, जो आँतों को सुरक्षा प्रदान करते हैं. हमारे शरीर के पाचनतंत्र में एक किलो से कुछ अधिक ही विभिन्न प्रकार के ऐसे सूक्ष्म जीवाणु भी होते हैं, जो भोजन को पचाने में सहायक बनते हैं उनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जो फरमेंटेशन लायक फलों या अन्य खाद्यपदार्थों को गलाकर विटामिन बी-१२ भी बना सकते हैं. यह एक ऐसा विटामिन है, जो अन्यथा केवल मांस में ही मिलता है.
मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में देखा गया है कि शाकाहारियों का हृदय अपेक्षाकृत जल्दी द्रवित होता है और मांसाहारियों में हिंसाभाव कुछ ज्यादा ही होता है.
उपरोक्त लेख “सत्याग्रह” में प्रकाशित मूल लेख “क्यों वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि दुनिया को बचाना है तो मांसाहार का संहार करना होगा” के सम्पादित अंश हैं. मूल लेखक- राम यादव
सम्पादित- मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”