इस देश में कहा तो यह जाता है कि सरकारी कर्मचारी/अधिकारी जनता का सेवक होता है। लेकिन जब हम किसी सरकारी कार्यालय में जाते हैं, तब हमें उस कार्यालय में बैठे कर्मचारी/अधिकारी को “साहब” कहकर क्यों सम्बोधित करना पड़ता है।
इस “साहब” शब्द को बोलते हुए मुझे बिल्कुल भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि मैं एक आज़ाद देश का नागरिक हूँ और सामने बैठा सरकारी कर्मचारी/अधिकारी जनता का सेवक है।
हम आज़ादी की 72 वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, लेकिन मानसिक रूप से हम आज भी गुलाम ही हैं।
आज भी हम “साहब” ही कहते हैं। अंतर केवल इतना ही आ पाया है कि पहले हम “गोरे साहब” कहते थे लेकिन आज हम केवल “साहब” कहते हैं।
किसी अधिकारी को सम्मानपूर्वक सम्बोधित करना उचित है किंतु उसको साहब कहना, मेरे दृष्टिकोण से गुलामी की निशानी ही है। “साहब” या “बाऊजी” जैसे शब्दों से गुलामी की बू आती है।
मैं इस गुलामी का पुरजोर विरोध करता हूँ, और इस देश के प्रत्येक नागरिक से यह अनुरोध करता हूँ कि “साहब” और “बाऊजी” कहने की इस गुलाम प्रथा का विरोध करे। आप आजाद देश के नागरिक हैं, आप जनता हैं,और सरकारी कर्मचारी/अधिकारी जनता के सेवक।।।
अगर आप किसी कर्मचारी/अधिकारी को “साहब” या ” बाऊजी” कह रहे हैं तब आप जाने-अनजाने लोकतन्त्र का अपमान कर रहे हैं।
मैं भारत सरकार से भी विनम्र अपील करता हूँ कि वह गुलामी की प्रतीक इस कुप्रथा को समाप्त करने की पहल करे।
-मनोज चतुर्वेदी शास्त्री