ॐ महर्षियों ने एकाग्रचित बैठे हुए मनु महाराज के पास जाकर और उनका पूजन करके, विधिपूर्वक यह प्रश्न किया- हे भगवन! आप सब ब्राह्मण आदि वर्णों के और संकीर्ण जातियों के वर्णाश्रम धर्म-कर्म से कहने में समर्थ हैं, इसलिए हमलोगों को उपदेश करिये. आप सब वैदिक श्रौत-स्मार्त कर्मों के अगाध और अनंत विषयों के एक ही जानने वाले हैं-(श्लोक १-३). इस प्रकार महर्षियों के विनयपूर्वक प्रश्नों को सुनकर महात्मा मनु ने सबका आदर करके कहा-अच्छा सुनो-“यह संसार अपनी उत्पत्ति के पूर्व अंधकारमय था, अज्ञात था, इसका कोई लक्षण नहीं था. किसी अनुमान से जानने लायक न था. चारों तरफ से मानों सोया हुआ था. इस महाप्रलय स्थिति के अनन्तर, सृष्टि के आरम्भ में, पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश आदि विश्व को सूक्ष्मरूप से, स्थूलरूप में प्रकट करने की इच्छा से अतीन्द्रिय, महासूक्ष्म, नित्य, विश्वव्यापक, अचिन्त्य परमात्मा ने, अपने को जाहिर किया. अर्थात महतत्त्व आदि की उत्पत्ति द्वारा अपनी शक्ति को संसार में प्रकट किया. उसके बाद नानाविध प्रजा-सृष्टि इच्छा से, पूर्व जल-सृष्टि करके, उसमें अपना शक्तिरूप बीज स्थापित किया. वह बीज ईश्वर इच्छा से, सूर्य के समान चमकीला सुवर्ण कासा गोला हो गया. उसमें सम्पूर्ण विश्व के पितामह स्वयं ब्रह्म का प्रादुर्भाव हुआ.”
जल को नार कहते हैं, क्योंकि वे नर नामक परमात्मा से पैदा हुए हैं. जल में ही परमात्मा ने ब्रह्मरूप से पहले स्थिति की है. इसलिए परमात्मा को नारायण कहते हैं. जो सारे जगत का उपादान कारण है, अप्रकट है, सनातन है, सत-असत पदार्थों का प्रकृतिभूत है, उसी से उत्पन्न वह पुरुष, संसार में ब्रह्म नाम से कहा जाता है. ब्रह्म ने उस अंड में ब्रहमान से एक वर्ष रहकर, अपनी इच्छा से उसका दो टुकड़ा किया. ऊपर के भाग से स्वर्गलोक, नीचे से भूलोक और दोनों के बीच आकाश बनाकर आठों दिशा और जल का स्थिर स्थान समुद्र को बनाया.(श्लोक ०१-१३) -क्रमश:
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री