१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दस साल बाद अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के मुख्य संस्थापक सय्यद अहमद खान ने हिंदी-उर्दू विवाद के कारण १८६७ में द्विराष्ट्र (टू नेशन थ्योरी) सिद्धांत को पेश किया था. इस सिद्धांत के अनुसार “भारतीय उपमहाद्वीप के हिन्दुओं और मुसलमानों को दो विभिन्न राष्ट्र करार दिया गया था.”
मई १८७५ में सय्यद अहमद खान ने अलीगढ़ में “मदरसतुलउलूम” नामक एक मुस्लिम स्कूल स्थापित किया और १८७६ में उन्होंने मोहमडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज की स्थापना की थी जो बाद में विकसित होकर १९२० में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना. सय्यद अहमद खान के प्रयासों से अलीगढ़ क्रांति की शुरुआत हुई, जिसमें शामिल मुस्लिम बुद्धिजीवियों और नेताओं ने भारतीय मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग करने का काम किया. सय्यद अहमद खान ने १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय ब्रिटिश साम्राज्य के वफादार बनकर बहुत से यूरोपियों की जान बचाई.
सय्यद अहमद खान ने १९०६ में मुस्लिम लीग की स्थापना में मुख्य भूमिका अदा की. क्योंकि सय्यद अहमद खान का मानना था कि कांग्रेस हिन्दू आधिपत्य पार्टी है.
मौहम्मद इकबाल जिन्हें अल्लामा इक़बाल के नाम से जाना जाता है और जिन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बताया जाता है, ने १९१० में “तराना-ए-मिल्ली” लिखा था जिसमें लिखा था “मुस्लिम हैं हम वतन है, सारा जहाँ हमारा”. जबकि १९०४ में इन्हीं अल्लामा इक़बाल ने “तराना ए हिन्द” लिखा था जिसके बोल थे “हिंदी हैं हम वतन है हिंदुस्तान हमारा”. मात्र ६ सालों के अन्तराल में इक़बाल के सुर किस तरह बदल गए थे इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. १९३० में इन्ही अल्लामा इक़बाल ने इलाहबाद में मुस्लिम लीग की बैठक की अध्यक्षता करते हुए मुसलमानों के लिए एक अलग देश का मुद्दा उछाला था. मुस्लिम लीग की इस इक्कीसवीं वार्षिक बैठक में अल्लामा इक़बाल ने न केवल द्विराष्ट्र सिद्धांत खुलकर समझाया बल्कि इसी सिद्धांत के आधार पर उन्होंने हिन्दुस्तान में एक मुस्लिम राज्य के स्थापना की भविष्यवाणी भी की थी.
“पाकिस्तान” शब्द रहमत अली नामक एक छात्र ने दिया था जो इंग्लेंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय का छात्र था. रहमत अली ने “भारत” को एक मिथ्या संज्ञा कहा और इसे मुस्लिम संस्कृति के लिए एक “संकट” के रूप में व्याख्यायित करने की कोशिश की. उसका मानना था कि तत्कालीन ब्रिटिश भारत को “भारत” कहना अनुपयुक्त है. अली का तर्क था कि एतिहासिक रूप से सिन्धु सभ्यता सनातन सभ्यता से सम्बन्धित है. सिन्धु सभ्यता से ही शब्द “हिन्दू” का उद्भव हुआ है, जो कहीं से भी मुस्लिम सोच को प्रदर्शित नहीं करता. अतः ९ करोड़ मुसलमानों के लिए “भारत” को अपना राष्ट्र मानना न केवल उनकी संस्कृति, विचारों, धर्मों, रीती-रिवाजों के लिए खतरा होगा, अपितु २५ करोड़ हिन्दुओं की आधीनता व् दासता को स्वीकार करने जैसा होगा”. रहमत अली की इस सोच को जिन्ना ने द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् व्यावहारिक रूप प्रदान किया. जिसकी परिणति मानव इतिहास के एक ऐसे काले अध्याय के रूप में हुई जिसमें गंगा-दोआब की संस्कृति जो सदियों से “आत्मसात” की संस्कृति बनी हुई थी, कहीं खो गई. इस द्विराष्ट्र के सिद्धांत ने २ लाख से लेकर १० लाख लोगों के जीवन का नरसंहार किया (स्टेनी वाल्पोर्ट पृष्ठ १) ६० लाख से अधिक लोग शरणार्थी हो गए.
२५ दिसम्बर १८७६ को जन्में मुहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल बने और पाकिस्तान में उन्हें “कायदे-आजम” यानी महान नेता और “बाबा-ए-कौम” यानि राष्ट्रपिता के रूप में याद किया जाता है.
भारतीय राजनीति में जिन्ना का पदार्पण १९१६ में हुआ था, जिन्ना ने कहा था “हिन्दू-मुस्लिम एक राष्ट्र नहीं बल्कि दो राष्ट्र हैं”. हालाँकि जिन्ना का किरदार प्रारंभ से ही इतना फिरकापरस्त नहीं था जितना की बाद में हुआ. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद १९२० के दशक में जब तुर्किस्तान में मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने इस्लामिक शासन की खलीफा व्यवस्था समाप्त करके सेक्युलर और आधुनिक शासन किया और हुकुमत में इस्लामिक कानूनों की भूमिका समाप्त कर दी तो भारत के मुस्लिम संगठनों ने इसके विरुद्ध आन्दोलन छेड़ा था जिसे खिलाफत आन्दोलन के नाम से जाना गया. लेकिन जिन्ना ने इस खिलाफत आन्दोलन का जोरदार विरोध किया था. जिन्ना ने भारत में पृथक-पृथक निर्वाचन मंडल लागू करने का भी विरोध किया था.
जिन्ना एक ऐसे मुसलमान थे जो ठीक से नमाज पढना भी नहीं जानते थे. जिन्ना ने पाकिस्तान शब्द नहीं दिया था. जिन्ना ने कांग्रेस केवल गाँधी जी से वैचारिक विरोध के चलते छोड़ी थी. जिन्ना को गाँधी जी के विचारों से सहमती कभी नहीं हुई. जिन्ना को गाँधी जी के सत्याग्रह का तरीका बिलकुल नापसंद था. नागपुर अधिवेशन में जिन्ना ने गाँधी के सत्याग्रह के तरीके का विरोध करते हुए कहा था “मिस्टर गाँधी, आप तुरंत सत्याग्रह के जरिये अनपढ़ हिदुस्तानियों को भडकाने का काम बंद कर दीजिये”. इस पर गाँधी समर्थक जिन्ना पर नाराज होते हुए बोले “मिस्टर गाँधी” नहीं “महात्मा गाँधी” कहिये. इसके बाद जिन्ना का कांग्रेस से पूरी तरह से मोहभंग हो गया था. १९३८ में जिन्ना ने कहा था “नेहरु कहते हैं कि भारत में दो पक्ष हैं ब्रिटिश और कांग्रेस, लेकिन भारत में चार पक्ष हैं ब्रिटिश, कांग्रेस, रजवाड़े और मुस्लिम लीग”. जिन्ना के शब्दों में “हिन्दू और मुसलमान दो अलग कौमें हैं और “हिन्दू भारत” में मुसलमान सुरक्षित नहीं रह सकते”.
कहा जाता है कि अपने अंतिम दिनों में जिन्ना को अपने किये का बहुत अफ़सोस था. और बताया जाता है कि आखिरी दिनों में एक बार जिन्ना के कमरे से निकलते हुए लियाकत अली को यह कहते हुए सुना गया था “बुड्ढ़े को अपने किये पर पछतावा हो रहा है”.
सच क्या है ये तो ईश्वर ही जानता होगा लेकिन इतना कहा जा सकता है कि पाकिस्तान बंटवारे में भले ही जिन्ना की मुख्य भूमिका रही हो लेकिन द्विराष्ट्र के सिद्धांत को जिन्ना ने नहीं बल्कि सय्यद अहमद खान ने दिया था. जो लोग (विनायक दामोदर सवारकर) वीर सावरकर को द्विराष्ट्र सिद्धांत (टू नेशन थ्योरी) का जनक बता रहे हैं वो लोग ये जान लें कि वीर सावरकर का जन्म २८ मई १८८३ को हुआ था जबकि सय्यद अहमद खान ने द्विराष्ट्र का सिद्धांत वीर सावरकर के जन्म से १६ साल पहले १८६७ में ही पेश कर दिया था. मणिशकंर अय्यर जैसे नेताओं को चाहिए कि वो इतिहास का अध्ययन करते समय अपनी आँखों पर लगा “पाकिस्तानी चश्मा” उतार दिया करें.
मुख्य स्रोत- https://www.harinayak.in
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