अंग्रेजों के बाद जिसने सर्वप्रथम साम्प्रदायिकता के बुनियाद को मजबूत करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की वे सर सय्यद अहमद खान ही थे. सर सय्यद अहमद खान प्रारम्भ में एक राष्ट्रवादी मुसलमान थे. आरंभ में उन्होंने जो भी मसले उठाये वे देशहित में थे. उन्होंने एक भाषण में कहा था “हिन्दू और मुस्लिम दोनों एक ही वायु में सांस लेते हैं, पवित्र गंगा और यमुना का जल पीते हैं, उसी भूमि के उपज का भोग करते हैं, जो ईश्वर ने इस देश को दिए हैं तथा साथ जीते और मरते हैं.” उन्होंने आगे कहा कि “देश की उन्नति तभी सम्भव हो सकती है, जब हमारे हृदय एक हों और हमारे बीच पारस्परिक प्रेम और सहानुभूति हो.”
उन्होंने आरंभ में कई ऐसे शिक्षण संस्थानों की स्थापना की जिसका आधार असाम्प्रदायिक था. १८६४ ईसवी में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में जिस “साइंटिफिक सोसायटी” की स्थापना की, वह हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए था. इसी प्रकार अलीगढ़ कॉलेज मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा के प्रति विरक्ति दूर करने के लिए खोला था. इसीलिए इसे न सिर्फ हिन्दुओं से आर्थिक सहायता मिली, बल्कि अध्यापकों व् छात्रों में हिन्दुओं की संख्या काफी अधिक थी.
किन्तु राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद उनका स्वर बदल गया और यहीं से साम्प्रदायिकता की राजनीती मजबूत होने लगी. अंग्रेजों और सर सय्यद अहमद खान के गठजोड़ ने भारत में राजनितिक वातावरण को साम्प्रदायिकता के भाव को कलुषित कर दिया. सर सय्यद अहमद खान और उनके समर्थकों ने यह कहना शुरू कर दिया कि अगर अंग्रेज भारत से चले जायेंगे तो हिन्दू बहुसंख्यक होने की वजह से मुस्लिम हितों का गला घोंट देंगे. उन्होंने राजभक्त मुसलमान नामक एक पुस्तक की रचना कर उसमें इस बात को प्रदर्शित करने का प्रयास किया, कि भारतीय मुस्लिमों का हित ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार रहकर सुरक्षित रह सकता है. इसलिए मुस्लिमों को सरकार के प्रति वफादार रहना चाहिए. सय्यद अहमद खान ने मुसलमानों की ऐतिहासिक भूमिका और राजनीतिक महत्व को मान्यता देने की मांग करते हुए कहा था कि सरकारी नौकरियों, विधायिकाओं इत्यादि में मुस्लिमों के लिए आरक्षण होना चाहिए. इस प्रकार सर सय्यद अहमद खान ने भारतीय राजनीति में सर्वप्रथम अंग्रेजों के साथ मिलकर भारत में साम्प्रदायिकता की नींव डाली.
आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता का जन्म (भाग-२)
विशेष – यह लेख “भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन” (ज्ञान सदन प्रकाशन) जिसके (लेखक मुकेश बरनवाल) की पुस्तक में से सम्पादित किये गए कुछ अंश पर आधारित है