इतिहासकार डाक्टर मंगाराम अपनी पुस्तक “क्या गाँधी महात्मा थे” में लिखते हैं- “स्वामी श्रद्धानन्द को २३ दिसम्बर १९२६ को अब्दुल रशीद नामक एक युवक ने उस समय गोली मार दी थी जब वे रुग्ण अवस्था में थे. गाँधीजी ने स्वामी श्रद्धानन्द के हत्यारे को “प्यारे भाई रशीद” कहकर सम्बोधित किया था. उसके द्वारा की गई जघन्य हत्या की निंदा करने के स्थान पर उस हत्यारे के प्रति बरती गई उदारता क्या गाँधी की नैतिक गिरावट को प्रकट नहीं करती? यहाँ ये भी उल्लेखनीय है कि स्वामी श्रद्धानन्द ने गाँधीजी को “महात्मा” जैसे आदरयुक्त शब्द से सम्बोधित किया था.
स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या के समय गाँधी कांग्रेस के २५ दिसम्बर,१९२६ के गोहाटी अधिवेशन में जारी शोक प्रस्ताव में कहा- “ऐसा तो होना ही था. अब आप समझ गए होंगे कि किस कारण मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा है और मैं पुनः उसे भाई कहता हूँ. मैं तो उसे स्वामीजी की हत्या का दोषी नहीं मानता. वास्तव में दोषी तो वे हैं जिन्होंने एक-दुसरे के विरुद्ध घृणा फैलाई. इसलिए यह अवसर दुःख प्रकट करने या आंसू बहाने का नहीं है.” इतना ही नहीं गाँधी ने अपने भाषण में कहा था- “मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु का शोक नहीं मना सकता. हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए. मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ.” उन्होंने आगे कहा कि “समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पड़ती है. स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है.” गाँधी ने अब्दुल रशीद के कुकृत्य का लगभग सही ठहराते हुए कहा था- ये हम पढ़े, अध्-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया. स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार को मजबूत कर सकेगा.”( यंग इंडिया, दिसम्बर ३०, १९२६). लगभग जिस प्रकार गाँधी ने स्वामी जी के हत्यारे अब्दुल रशीद की आलोचना नहीं की, ठीक उसी प्रकार गाँधी ने आर्य उपदेशक पंडित लेखराम, आर्यसमाजी नेता लाल नानक चंद, महाशय राजपाल, सिंध के आर्य नेता नाथूरमल शर्मा तथा गणेश शंकर विद्यार्थी के हत्यारों की भी निंदा नहीं की थी.
स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के स्वभाव, मृदुता, शालीनता और सौम्यता से प्रभावित होकर उनके अनेक प्रशंसक बन गए थे जिनमें न केवल हिन्दू थे अपितु ईसाई और मुसलमान दोनों थे. उनके प्रशंसकों में एक महत्वपूर्ण नाम था मौलाना आसफ अली बार एट लॉ. दिल्ली के मशहूर वकील थे और क्रन्तिकारी अरुणा आसफ अली के पति थे. मौलाना आसफ अली ने बड़े शौक से गीता रहस्य मांग कर पढ़ा और जब कभी भी कोई शंका होती तो स्वामी श्रद्धानन्द जी से बड़े हर्ष से समाधान कर देते थे. मौलाना आसफ अली ने हिंदुस्तान रिव्यू नामक अख़बार में स्वामी जी की शहादत के पश्चात् एक लेख लिखा था जिसमें आप लिखते हैं- “ १९१८ में दिल्ली में कांग्रेस के अधिवेशन में स्वामी जी को स्वागत कारिणी समिति का उपप्रधान चुना गया था. मुझे स्वामी जी के साथ कार्य करने का बहुत अवसर मिला. आपकी स्नेहमय उदारता, अपूर्व सज्जनता, नम्रता और निष्कपट मैत्री ने शीघ्र ही मुझे वशीभूत कर लिया. उनकी गुरुजन सुलभ सौम्यता और स्नेह और मेरी ओर से भक्ति और सम्मान के भावों ने हमारे बीच में एक ऐसा प्रगाढ़ सम्बन्ध उत्पन्न कर दिया जो अनेक विषयों पर हम में तात्विक विरोध होने पर भी अंत तक बना रहा.”
१९४९ में गाँधी जी के बारे में जार्ज ओरवेल ने लिखा था- “सौन्दर्यबोध के लिहाज से कोई गाँधी के प्रति वैमनस्य रख सकता है, कोई उनके महात्मा होने के दावे को भी ख़ारिज कर सकता है, कोई उनकी साधुता के आदर्श को ख़ारिज कर सकता है, लेकिन एक राजनेता के तौर पर देखने पर और मौजूदा समय के दुसरे तमाम राजनेताओं से तुलना करने पर हम पाते हैं कि वे अपने पीछे कितना सुगन्धित इतिहास छोडकर गए है.”
स्रोत – १. “भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन” (ज्ञान सदन प्रकाशन) जिसके (लेखक मुकेश बरनवाल)
२. रचनाकार डॉट ओआरजी (वेबसाइट) में हिंदी में प्रकाशित लेख (स्वामी श्रद्धानन्द का हत्यारा, गाँधीजी को प्यारा-रामेशराज )
३. मेकिंग इंडिया ऑनलाइन डॉट इन (वेबसाइट) पर प्रकाशित लेख “स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या सेकुलर थी तो गाँधी की साम्प्रदायिक कैसे?”
४. ब्लॉग द आर्य समाज डॉट ओआरजी में प्रकाशित लेख “स्वामी श्रद्धानन्द के जीवन के कुछ अलभ्य संस्मरण”