ॐ ब्रह्मचारी दंड लेकर, सूर्य का आराधन और अग्नि की प्रदक्षिणा करके विधिपूर्वक भिक्षा करके विधिपूर्वक भिक्षा मांगे. ब्राह्मण ब्रह्मचारी भिक्षा मांगते समय “भवति भिक्षां देहि” क्षत्रिय “भिक्षा भवति देहि” वैश्य “भिक्षां देहि भवति” ऐसा बोले. ब्रह्मचारी को, पहले माता से, माता की बहन से, बहन से और जो ब्रह्मचारी का अपमान न करती हो, उससे भिक्षा माँगना चाहिए. (श्लोक: ४७-५०)
अपने प्रयोजन भर को निष्कपट भाव से भिक्षा लाकर, गुरु को निवेदन करे और पवित्रता से पूर्व दिशा को मुख करके आचमन पूर्वक भोजन करे. आयु के लिए पूर्वमुख, यश के लिए दक्षिण मुख, सम्पत्ति के लिये पश्चिम मुख, सत्य के लिए उत्तर मुख होकर भोजन करे. द्विजों के लिए नित्य सावधानी से आचमन पूर्वक भोजन करके फिर आचमन और जल के हाथ से आँख, कान, नाक का स्पर्श करना चाहिए. अन्न को आदर से ग्रहण करे, उसकी निंदा न करे. उसको देखकर हर्षित, पुलकित होकर सर्वथा प्रशंसा करे. यों आदर से किया हुआ भोजन शरीर और प्राणों को बल देता है. नहीं तो दोनों का नाश करता है.( श्लोक:५१-५५)
उछिए-झूठा अन्न किसी को न दे, भोजन के बीच ठहर-ठहर कर भोजन न करे. अधिक भोजन न करे और झूठे मुहं कहीं न जाए. अति भोजन से आरोग्य और आयु में बाधा होती है, यह स्वर्ग और धर्म का विरोधी है. लोक में भी अच्छा है. लोक में भी अच्छा नहीं माना गया जाता, इसलिए अति भोजन नहीं करना चाहिए. (श्लोक: ५६-५७)
ब्राह्मण सदा ब्रह्मतीर्थ से आचमन करे, या प्रजापतितीर्थ और देवतीर्थ से करे परन्तु पितृतीर्थ से कभी आचमन न करे. अंगूठे के मूलभाग को ब्रह्मतीर्थ कहते हैं. अँगुलियों के मूलभाग को प्रजापतितीर्थ अग्रभाग को देवतीर्थ और अंगूठा तर्जनी के मध्य भाग को पितृतीर्थ कहते हैं. आचमन के समय तीन बार आचमन करके दो बार मुख धोवे और आँख, कान, नाक, मुख आदि इन्द्रिय, हृदय और शिर का जल से स्पर्श करे. धर्मज्ञ पुरुष, पवित्र होने की इच्छा से, नित्य, एकांत में पूर्व या उत्तरमुख बैठकर, शीतल और फेन (झाग) रहित जल से, ब्राह्म आदि तीर्थों से आचमन करे. यह आचमन जल हृदय तक पहुँच जाने से ब्राह्मण, कंठ तक क्षत्रिय, मुख गीला होने से वैश्य और ओंठ स्पर्श से शूद्र पवित्र होता है- अर्थात इसी हिसाब से जल लेकर अपना-अपना आचमन करना चाहिए. (श्लोक: ५८-६२)
क्रमश:
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री