1- मनुस्मृति की महत्ता एवं प्रभाव
भारतीय साहित्य में मनुप्रोक्त स्मृति का “मनुस्मृति” “मनुसंहिता” “मानवधर्मशास्त्र” आदि कई नामों से उल्लेख आता है। मनुस्मृति भारतीय साहित्य में सर्वाधिक चर्चित धर्मशास्त्र है क्योंकि अपने रचनाकाल से ही यह सर्वाधिक प्रामाणिक, मान्य एवं लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। स्मृतियों में इसका स्थान सबसे ऊंचा है। यही कारण है कि परवर्ती काल में अनेक स्मृतियां प्रकाश में आईं किन्तु मनुस्मृति के प्रभाव के समक्ष टिक न सकीं, अपना प्रभाव न जमा सकीं, जबकि मनुस्मृति का वर्चस्व आज तक बना हुआ है।
मनुस्मृति एक विधि-विधानात्मक शास्त्र है। इसमें जहां एक ओर वर्णाश्रम धर्मों के रूप में व्यक्ति एवं समाज के लिए हितकारी धर्मों, नैतिक कर्तव्यों, मर्यादाओं, आचरणों का वर्णन है, वहां श्रेष्ठ समाज-व्यवस्था के लिए विधानों-कानूनों का निर्धारण भी है, और साथ ही मानव को मुक्ति प्राप्त कराने वाले आध्यात्मिक उपदेशों का निरूपण है। यों कहिये कि यह व्यक्ति एवं समाज के लिए धर्मशास्त्र एवं आचारशास्त्र है, तो साथ ही सामाजिक व्यवस्थाओं को सुचारू रूप में रखने के लिए संविधान भी है।
भारतीय साहित्य में मनुप्रोक्त स्मृति का “मनुस्मृति” “मनुसंहिता” “मानवधर्मशास्त्र” आदि कई नामों से उल्लेख आता है। मनुस्मृति भारतीय साहित्य में सर्वाधिक चर्चित धर्मशास्त्र है क्योंकि अपने रचनाकाल से ही यह सर्वाधिक प्रामाणिक, मान्य एवं लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। स्मृतियों में इसका स्थान सबसे ऊंचा है। यही कारण है कि परवर्ती काल में अनेक स्मृतियां प्रकाश में आईं किन्तु मनुस्मृति के प्रभाव के समक्ष टिक न सकीं, अपना प्रभाव न जमा सकीं, जबकि मनुस्मृति का वर्चस्व आज तक बना हुआ है।
मनुस्मृति एक विधि-विधानात्मक शास्त्र है। इसमें जहां एक ओर वर्णाश्रम धर्मों के रूप में व्यक्ति एवं समाज के लिए हितकारी धर्मों, नैतिक कर्तव्यों, मर्यादाओं, आचरणों का वर्णन है, वहां श्रेष्ठ समाज-व्यवस्था के लिए विधानों-कानूनों का निर्धारण भी है, और साथ ही मानव को मुक्ति प्राप्त कराने वाले आध्यात्मिक उपदेशों का निरूपण है। यों कहिये कि यह व्यक्ति एवं समाज के लिए धर्मशास्त्र एवं आचारशास्त्र है, तो साथ ही सामाजिक व्यवस्थाओं को सुचारू रूप में रखने के लिए संविधान भी है।
मनुस्मृति को इतना अधिक महत्वशाली, सम्मान्य तथा लोकप्रिय बनाने वाले कारणों में जहां इसके व्यक्ति और समाज के लिए हितकारी, व्यवहारिक एवं युक्तियुक्त विधि-विधान हैं, वहां इसकी प्राचीनता एवं वेदानुकूलता भी उल्लेखनीय कारण हैं। सर्वप्राचीन, सर्वाधिक मान्य और श्रद्धेय होने से वेद ही समस्त भारतीय साहित्य के मूलस्रोत हैं तभी तो मनु ने भी वेदों को ही प्रधानरूप से अपनी स्मृति का आधार बनाया है। उनकी दृढ़ मान्यता है कि-
वेद ही धर्म के मूलाधार हैं।(मनु 2।6)
मंत्रार्थों के साक्षातदृष्टा ऋषि-मुनियों ने वेदों के मौलिक सिद्धांतों को समझकर ही वेदांग, ब्राह्मण, दर्शन, धर्मशास्त्र आदि ग्रन्थों की रचना की, जिससे मानव, ज्ञान को प्राप्त करके अज्ञान को छोड़कर अपने चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकें। महाराज मनु ने भी मनुस्मृति में वर्णों एवं आश्रमधर्मो के रूप में व्यक्ति एवं समाज के लिए हितकारी धर्मों-कर्तव्यों, विधानों का वर्णन वेद के आधार पर ही किया है और धर्म जिज्ञासा में वेद को ही परम प्रमाण माना है-
“धर्म जिज्ञासमानानाम प्रमाणम परम् श्रुति” (मनु 2।13)
अर्थात-धर्म की जिज्ञासा रखने वालों के लिए वेद ही परम प्रमाण है। उसी से धर्म-अधर्म का निश्चय करें।
साभार- “विशुद्ध मनुस्मृति” लेखक डॉ. सुरेंद्र कुमार, आर्ष साहित्य प्रचार
*संकलन-मनोज चतुर्वेदी शास्त्री*
ब्राह्मण संस्कृति सेवासंघ
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