सपा-बसपा गठबंधन के सीट बंटवारे में बिजनौर लोकसभा की सीट बसपा के खाते में गई है(अभी तक यही ख़बर मिल रही है).
बसपा में इस सीट के लिए यूं तो कई उम्मीदवार थे, लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती ने पूर्व बसपा विधायक मौहम्मद इक़बाल ठेकेदार को ही क्यों चुना इसको जानना बेहद जरूरी है।
अधिकांश लोग जानते हैं कि बिजनौर जिले से बहन मायावती का काफ़ी गहरा ताल्लुक़ रहा है। दूसरे शब्दों में जिला बिजनौर मायावती की कर्मभूमि रही है। इसलिए मायावती को यह राय देना कि बिजनौर लोकसभा पर किसे प्रत्याशी चुना जाए, ठीक वैसा ही है जैसे सूरज को चिराग़ दिखाना। बिजनौर से सम्बंधित कोई भी निर्णय मायावती खुद कर सकने में सक्षम हैं। ये बात मुझे बसपा के एक बड़े दिग्गज नेता ने तब बताई थी जब मैं लखनऊ में था।
फिलहाल बहनजी ने मौहम्मद इक़बाल को लोकसभा प्रभारी चुना है। हालांकि इसके लिये दो प्रमुख दावेदार थे, जिसमें एक मौहम्मद इक़बाल और दूसरी बिजनौर की एक महिला नेत्री रुचिवीरा थीं।
अगर दोनों ही दावेदारों का तुलनात्मक विश्लेषण किया जाए, तो मौहम्मद इक़बाल एक लंबे से बसपा से जुड़े हैं और तीन बार चाँदपुर विधानसभा से बसपा की सीट पर चुनाव लड़ चुके हैं। जबकि रुचिवीरा अभी तक समाजवादी पार्टी से जुड़ी थीं और बिजनौर विधानसभा से सपा की सीट पर जीत चुकी हैं।
राजनीति में दोनों ही अपने-अपने स्तर पर दिग्गज खिलाड़ी हैं। लेकिन जहां मौहम्मद इक़बाल एक लंबे समय से बसपा की टीम के वफ़ादार खिलाड़ी रहे हैं, वहीं कुंवरानी रुचिवीरा अपनी ही पार्टी से न केवल बग़ावत कर चुकी हैं बल्कि सपा को छोड़कर बसपा का दामन थामने को तैयार हैं।
ऐसे में प्रश्न यह है कि यदि किसी कारण कल को यह सीट सपा के खाते में जाती है तब कुंवरानी रुचिवीरा पलटी नहीं मारेंगी, इसका क्या विश्वास किया जा सकता है?
टिकट के लिए अगर सपा छोड़ी जा सकती है तो बसपा क्यों नहीं छोड़ी जा सकती?? दूसरे शब्दों में *”सुल्फ़िया यार किसके, दम लगाए और खिसके”* वाली कहावत चरितार्थ हो सकती है।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि बिजनौर लोकसभा पर मुस्लिम समुदाय की एक बड़ी हिस्सेदारी है और इसी कारण मुस्लिम समाज की दावेदारी मज़बूत मानी जायेगी।
लेकिन समस्या यह है कि बसपा का सीधा मुकाबला भाजपा से है, और भाजपा कभी नहीं चाहेगी कि बसपा किसी मज़बूत उम्मीदवार को मैदान में उतारे।
एक और बात यह भी है कि भाजपा चाहती है कि बसपा का टिकट किसी मनुवादी मानसिकता के उम्मीदवार को ही मिले ताकि दलितों के वोट को तोड़ा जा सके, वैसे भी पेदा-पैदी कांड को बहुसंख्यक समुदाय अभी तक नहीं भुला, और विशेषकर बिजनौर की एक पूर्व सदर विधायक की उसमें भूमिका को नहीं भूल पाया है जिसमें तथाकथित रूप से उन्होंने खुलेआम एकपक्षीय कार्यवाही की थी।
एक और बात जो यहां समझनी जरूरी है, वह यह है कि मुस्लिम समाज की भी कुछ अपेक्षाएं हैं और वह चाहता है कि उसके समाज के लोग भी जनप्रतिनिधि बनें और राजनीति में उनका सक्रिय योगदान हो।
मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबक़ा इस बात पर एकमत है कि बिजनौर लोकसभा से गठबंधन का प्रत्याशी कोई मुस्लिम ही होना चाहिए। जबकि विपक्ष चाहता है कि कमज़ोर प्रत्याशी को खड़ा किया जाए ताकि आसानी से चुनाव जीता जा सके। और यदि यह प्रत्याशी कोई बहुसंख्यक समाज का मनुवादी मानसिकता का प्रत्याशी होगा तो निश्चित रूप से उसका सीधा लाभ विपक्ष को ही होगा। क्योंकि मुस्लिम समुदाय किसी ग़ैर-मुस्लिम को एकराय होकर वोट नहीं करेगा और ऐसे में वोट कटेगा, जिसका सीधा लाभ विपक्ष को ही मिलेगा।
बिजनौर सीट पर दलित और मुस्लिम का गठजोड़ फेविकोल से भी ज़्यादा मज़बूत और ताक़तवर है। विपक्ष के लिए इस गठजोड़ को किसी भी सूरत में तोड़ना जरूरी है, और यही प्रयास पिछले कुछ दिनों से किया जा रहा है जिसकी एक बानगी कल चाँदपुर में देखने को मिली।
मौहम्मद इक़बाल के नाम पर दलित और मुस्लिम समाज के बीच खाई पैदा की जा रही है, जबकि मौहम्मद इक़बाल चाँदपुर विधानसभा से लगातार दो बार विधायक रह चुके हैं। 2017 के चुनावों में भी मौहम्मद इक़बाल 57,000 वोट लाकर दूसरे नम्बर पर रहे थे। अब इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मौहम्मद इक़बाल का इक़बाल कितना बुलंद है।
आखिरी बात यह भी है कि मौहम्मद इक़बाल हमेशा सर्वसमाज को लेकर चले हैं, और यही वजह है कि जबरदस्त मोदी लहर के बावजूद इक़बाल ठेकेदार 57,000 वोट लेने में कामयाब रहे।
कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं होगा कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने मौहम्मद इक़बाल को लोकसभा प्रभारी बनाकर अपने वर्षों के अनुभव और दूरअंदेशी का परिचय दिया है। और विपक्ष की नाक में नकेल डालने की पूरी तैयारी कर ली है।
अंत में एक शेर के माध्यम से उन लोगों तक एक सन्देश पहुंचाना चाहता हूं जिन्होंने दुश्मनों के साथ मिलकर बहन मायावती के निर्णय को चुनौती दी है और बसपा में बग़ावत पैदा कर रहे हैं-
*मुद्दई लाख बुरा चाहे, तो क्या होता है।*
*होता वही है, जो मंजूरे ख़ुदा होता है।।*
*-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*
राजनीतिक विश्लेषक