“उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरन्नी बोधतः” अर्थात उठो, जागो और प्रयत्न करो, तब तक, जब तक कि तुम्हारा लक्ष्य तुम्हें प्राप्त न हो जाये”. ऐसा आह्वान करने वाले स्वामी विवेकानंद राष्ट्रवाद के अग्रदूतों में से थे. उनका यह मानना था कि “राष्ट्र व्यक्तियों से ही बनता है, यह सत्य है कि राष्ट्र एक समुदाय है, किन्तु राष्ट्र की अवयवी प्रकृति का चाहे कितना ही गुणगान क्यों न कर लें. वस्तुतः व्यक्ति ही राष्ट्रीय ढांचे के घटक होते हैं. इसलिए जब तक व्यक्ति स्वस्थ, नैतिक तथा दयालु नहीं होगा, तब तक राष्ट्र की महानता तथा समृद्धि की आशा करना व्यर्थ है. उन्होंने भारतीय जनमानस को ललकारते हुए कहा- “हे वीर ! निर्भीक बनो, साहस धारण करो, इस बात पर गर्व करो कि तुम भारतीय हो और गर्व के साथ घोषणा करो कि मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है”.
रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा कि- “यदि कोई भारत को समझना चाहता है, तो उसे स्वामी विवेकानंद को पढ़ना चाहिए”. नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने लिखा है- “स्वामी विवेकानंद का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजना देने वाला धर्म है”.
उनके द्वारा प्रतिपादित राष्ट्रवाद का अध्यात्मिक विचार राजनीतिक चिन्तन को एक अनुपम देन है. उनका स्वतंत्रता सम्बन्धी विचार स्वराज्य का प्रतीक है. वे आन्तरिक तथा वाह्य दोनों प्रकार की स्वतंत्रता के प्रतिपादक थे. उन्होंने राष्ट्रवाद के व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों ही पक्षों का समन्वय प्रस्तुत किया. उनका कहना था कि “राष्ट्र की भावी महानता का निर्माण उसके अतीत की महत्ता की नींव पर ही किया जा सकता है. अतीत की उपेक्षा करना राष्ट्र के जीवन का ही निषेध करने के समान है. इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का निर्माण अतीत की ऐतिहासिक विरासत की सदृढ़ नींव पर ही करना होगा”. स्वामी विवेकानंद का यह मानना था कि प्रत्येक राष्ट्र का जीवन किसी एक प्रमुख तत्व की अभिव्यक्ति है और इस रूप में उनका विचार पाश्चात्य दार्शनिक हेगले से मिलता था. धर्म भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण नियामक सिद्धांत रहा है. स्वामी विवेकानंद ने लिखा है कि “जिस प्रकार संगीत में एक प्रमुख स्वर होता है, वैसे ही हर राष्ट्र के जीवन में एक प्रधान तत्व हुआ करता है, अन्य सभी तत्व उसी में केन्द्रित होते हैं. प्रत्येक राष्ट्र का अपना तत्व है, अन्य सब वस्तुएं गौण होती हैं. भारत का तत्व धर्म है.” इसलिए उन्होंने राष्ट्रवाद के एक धार्मिक सिद्धांत की नींव का निर्माण करने के लिए कार्य किया.
उन्होंने १८९३ ईसवी में शिकागो में आयोजित धर्म संसद में दिए गए अपने ओजस्वी भाषण में इस बात में इस बात पर बल दिया किया कि “यद्यपि पश्चिमी जगत राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से भारत से अधिक शक्तिशाली और समृद्धशाली है, परन्तु अध्यात्मिक क्षेत्र में वह उससे कहीं पीछे है और भारत उसे बहुत कुछ दे सकता है”. उनका कहना था कि “मैं भारत में लोहे की मांसपेशियां और फौलाद की नाड़ी तथा धमनी देखना चाहता हूँ, क्योंकि इन्हीं के भीतर वह मन निवास करता है, जो शम्पाओं तथा वज्रों से निर्मित होता है”. शक्ति, पौरुष, क्षात्र-वीर्य, ब्रह्मतेज इनके समन्वय से भारत की नई मानवता का निर्माण होना चाहिए”.