ॐ वेदाध्ययन और उसके अर्थज्ञान से बढ़ा तेज ब्रह्मवर्चस है. उसकी इच्छावाले ब्राह्मण का पांचवे वर्ष, बलार्थी क्षत्रिय का छठे वर्ष, धनी होना चाहनेवाले वैश्य का आठवें वर्ष यज्ञोपवीत संस्कार करे. सोलह वर्ष तक ब्राह्मण की सावित्री नहीं जाती. क्षत्रिय की बाईस वर्ष तक और वैश्य की चौबीस वर्ष तक नहीं जाती. अर्थात यह उपनयन समय की परमअवधि है. इस काल के बाद, ये तीनों समय में संस्कार न होने से, सावित्रीपतित “व्रात्य” नामक हो जाते हैं और शिष्टों से निन्दित होते हैं. इन अशुद्ध व्रात्यों के साथ आपत्तिकाल में भी ब्राह्मणों को, विद्या वा विवाह का सम्बन्ध न करना चाहिए. (श्लोक: ३७-४०)
कृष्णमृग, रुरुमृग और अज इनके चर्म को क्रम से तीनों वर्ण के ब्रह्मचारी धारण करें और सन, क्षौम (अलसी) और ऊन का वस्त्र धारण करें. मंजू की तिलड़ी और चिकनी मेखला ब्राह्मण की बनावे, क्षत्रिय की मूर्वा नामक बेल के रेसे की गुण्सी बनावे, और वैश्य की सन के डोरे की बनाना चाहिए. यदि मूंज न मिले तो कुश, अश्मंतक, वल्वज तृणों से तीनों वर्णों की मेखला बनावे. यह तीन लर की एक, तीन या पांच गांठ लगाकर धारण करना चाहीये.( श्लोक:४१-४३)
ग्राहाण का यज्ञोपवीत सूत का, क्षत्रिय का सन का और वैश्य का भेड़ की ऊन का, ऊपर को बंटा हुआ (दाहिने हाथ से) तीन लर का होना चाहिए. धर्मशास्त्र के अनुसार, ब्राह्मण बेल वा पलाश का दंड, क्षत्रिय वट वा खैर की लकड़ी का, वैश्य पीलू वा गूलर का धारण करे. ब्राह्मण का दंड उंचाई में, शिखा तक, क्षत्रिय का मस्तक तक और वैश्य का नाक तक होना चाहिए. ये सब दंड सीधे, छेदरहित, देखने में सुंदर, दुसरे को भय न करनेवाले, वकले के सहित और आग में न जले हुए, होने चाहिए. (श्लोक: ४४-४७)
क्रमश:
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री