ॐ बाएं कंधे पर जनेऊ रखकर, दाहिने हाथ को बाहर निकालने से द्विज “उपवीती” कहा जाता है. दाहिने कंधे पर से बाएं तरफ लटकाने से “प्राचीन आविती” और गले में मालासी पहनने से “निवीती” कहा जाता है. यदि मेखला, मृगचर्म, दंड, जनेऊ और कमंडलू पुराने हो जाएँ तो इनको जल में फेंककर और गुह्य्सूत्र के मन्त्रों को पढ़कर, दूसरा धारण करना चाहिए. (श्लोक: ६३-६४)
ब्राह्मण का गर्भ से सोलहवें वर्ष, क्षत्रिय का बीसवें वर्ष और वैश्य का चौबीसवें वर्ष केशांत संस्कार किया जाता है. स्त्रियों की शरीर शुद्धि के लिए, सब संस्कार (उपनयन छोडकर) समय पर क्रम से होते हैं, पर वेदमंत्रों को न पढ़ना चाहिए. विवाह संस्कार से ही स्त्रियों का उपनयन संस्कार है, पति सेवा ही गुरुकुल वास है, घर का कामकाज ही हवनकर्म है. यह द्विजों के द्विजत्व को करनेवाले उपनयन संस्कार को कहा है, अब उनके कर्तव्यों कर्मों को सुनो. (श्लोक:६५-६९)
शिष्य के यज्ञोपवीत संस्कार के बाद, गुरु पहले शुद्धि, आचार, प्रातःकाल और सायंकाल हवन और संध्या सिखावे. पढ़नेवाले शिष्य को, छोटा वस्त्र धारण और शास्त्रविधि से उत्तरमुख आचमन करके, जितेन्द्रिय होकर, ब्रह्मान्जलीपूर्वक पढ़ना चाहिए. (श्लोक: ७०-७१)
वेदाध्ययन के आरंभ और अंत में सदा गुरु के चरण छुए और हाथ जोड़कर पढ़े, इसी को “ब्रह्मान्जली” कहते हैं. अलग-अलग हाथ से गुरु के पैर छुए, दाहिने से दाहिना और बाएं से बायाँ. गुरु निरालस होकर शिष्य को पहले “हे शिष्य पढ़ो” कहकर वेद पढ़ावे और अंत में “विरमो अस्तु” (पाठ रुक जाए) कहकर विश्राम करे. वेदाअध्ययन के आदि और अंत में “ॐ” का उच्चारण सदा करे. यदि आदि में “ॐ” न कहे तो विद्या में प्रेम नहीं होता और अंत में न कहे तो पढ़ी विद्या भूल जाती है. पूर्वदिशा को कुशासन का अग्रभाग करके, उसपर वेदाध्यायी बैठकर, तीन प्राणायाम करके, पवित्रता से, स्वाध्याय करने के पूर्व “ॐकार” का उच्चारण करे. (श्लोक: ७२-७५)
क्रमश:
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री