ये सब वृक्ष अज्ञानवश अपने पूर्व जन्म के बुरे कर्मों से घिरे हुए हैं. इनके भीतर छिपा हुआ ज्ञान है और इनको सुख-दुःख भी होता है. इस नाशवान संसार में ब्रह्मा से लेकर स्थावर तक यही उत्पत्ति का नियम कहा गया है. उस अचिन्त्य प्रभावशाली परमात्मा ने यह विश्व और मेरे को उत्पन्न करके सृष्टिकाल को प्रलयकाल में मिलाकर अपने में लीन कर लिया है. अर्थात प्राणियों के कर्मवश बार-बार सृष्टि और प्रलय किया करता है. जब परमात्मा जागता है अर्थात सृष्टि की इच्छा करता है उस समय यह सारा जगत चेष्टायुक्त हो जाता है और जब सोता है याने प्रलय इच्छा करता है, तब विश्व का लय हो जाता है. यही परमात्मा का जागना और सोना है, जब वह सोता है-निर्व्यापार रहता है तब कर्मात्मा प्राणी अपने-अपने कर्मों से निर्वत्त हो जाते हैं और मन भी सब इन्द्रियों सहित शांत भाव को पा जाता है. एक ही काल में जब सारे प्राणी परमात्मा में लय को पाते हैं, तब यह सुख से शयन करता हुआ कहा जाता है.
इस दशा में यह जीव इन्द्रियों के साथ बहुत काल तक तम (सुपुप्ती) को आश्रय करके रहता है. और अपना कर्म नहीं करता, किन्तु पूर्व देश से जुदा रहा करता है. फिर अणुमात्रिक शरीर बनने की आठ सामग्री हैं- जीव, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, वासना, कर्म, वायु, अविद्या इनको शाख में “पुर्यप्त्क” कहते हैं. यों पहले अणु मात्रिक अचर और चर के हेतुभूत बीज में प्रविष्ट होकर पुर्यप्त्क में मिलकर शरीर को धारण करता है. इस प्रकार अविनाशी परमात्मा जागरण और शयन से, इस चराचर जगत को उत्पन्न और नष्ट किया करता है. (श्लोक ४२-५७)
क्रमश:
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री
ॐ इस जगत में जिन प्राणियों का जो कर्म कहा है, वैसा ही हम कहेंगे और उनके जन्म का क्रम भी वर्णन करेंगे. सृष्टि चार प्रकार की है, उनको क्रम से कहते हैं- पशु, सिंह, ऊपर नीचे दांत वाले सब राक्षस, पिशाच और मनुष्य ये सब “जरायुज” कहलाते हैं. पक्षी, सांप, नाक, मछली, कछुआ और जो ऐसे ही भूमि या जल में पैदा होने वाले जीव हैं, वे सब अंडज हैं. मच्छर, दंश, जूं, मक्खी, खटमल आदि पसीने की गर्मी से पैदा होने वाले “स्वेदज” होते हैं. वृक्ष आदि को “उन्द्रिज” कहते हैं. ये दो तरह के हैं, बीज से पैदा होने वाले और शाखा से पैदा होने वाले. जो वृक्ष फलों के पक जाने पर सुख जाते हैं और जो बहुत फल, फूलवाले होते हैं. उनको “औषधि” कहते हैं. जिनमें फल आवें पर फूल नहीं उनको “वनस्पति” कहते हैं. और जो फल, फूलवाले हैं वे “वृक्ष” कहे जाते हैं. जिसमें जड़ से ही लता का मूल हो, शाखा न हो, उसको गुच्छ कहते हैं. गुल्म-ईख वगैरह, त्रणजाति कई भांति के बीज और शाखा से पैदा होने वाले, प्रतान जिसमें से सूत सा निकले और वही गुर्च आदि सब “उद्भिज” हैं.