भारत एक राष्ट्र है। राष्ट्र और देश में अंतर है। देश वह इलाका है जिसे एक अलग जगह माना जा सकता है। इसके ठीक विपरीत राष्ट्र एक ऐसा क्षेत्र होता है जहां रहने वाले लोग आपस में जुड़े भी रहते हैं परंतु उनकी बीच कई तरह की विविधताएं होती हैं, वहीं कई समानताएं भी होती हैं। ये लोग एक क्षेत्र विशेष में रहते हैं। देश एक खास क्षेत्र होता है जहां लोगों के समूह एक कॉमन सरकार के अधीन रहते हैं। जबकि राष्ट्र में रहने वाले लोग एक खास संस्कृति और परंपराओं का अनुसरण करते हैं।
मोटे शब्दों में देश और राष्ट्र में वही अंतर है जो एक मकान और घर में होता है। मकान सीमेंट और कंक्रीट से बनी एक इमारत होती है और घर प्रेम और सौहार्द से बनी चाहरदिवारी होती है जिसकी नींव विश्वास पर टिकी होती है।
राष्ट्र एक विचारधारा है, एक संस्कृति है, एक सभ्यता है। जबकि देश एक जमीन का टुकड़ा है जिसपर कुछ खास लोगों का कब्जा होता है। देश के टुकड़े हो सकते हैं, देश पराजित हो सकता है, पराधीन हो सकता है किंतु राष्ट्र कभी पराधीन नहीं हो सकता, उसके टुकड़े कभी नहीं हो सकते। क्योंकि राष्ट्र एक विचारधारा है और विचारधारा कभी पराधीन नहीं हो सकती, विचारधारा का बंटवारा नहीं हो सकता।
विचारधारायें ही संगठन को जन्म देती हैं, संगठन कभी किसी विचारधारा को जन्म नहीं देते। जब विचारधारा मज़बूत होती है तब संगठन भी सुदृढ होता है, अनुशासित होता है।
हम भारत को राष्ट्र मानते हैं, उसकी मिट्टी में हमें अपनी माँ के आँचल की महक आती है, उसकी हवाओं में हमें अपनी माँ के पवित्र शरीर की सुगंध मिलती है, उसके जल में हमें अपनी माँ के दूध की खुशबू आती है।
हमें भारत के कण-कण में अपनी माँ की ममता दिखाई देती है, उसकी हवाओं में अपनी माँ की लोरियां सुनाई देती हैं।
हमारा भारत हमारी मां की तरह पवित्र, निर्मल और निश्छल है।
इसीलिए हम उसे भारत माँ कहते हैं। इसीलिए हम उसकी वंदना करते हैं और हमारे मुख से वंदेमातरम शब्द का उच्चारण स्वतः ही हो जाता है।
हमारे राष्ट्र की विचारधारा है “यत्र पूज्यंते नारी, तत्र रमन्ते देवता” अर्थात जहां नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का वास होता है”. और जो इस विचारधारा को जानता और मानता है वही राष्ट्र्वादी है। वही इस माँ का सच्चा सपूत है।
किन्तु जो लोग भारत को केवल एक देश मानते हैं, उनके लिए यह केवल एक जमीन का टुकड़ा मात्र है। इसलिए उनको इससे आत्मिक लगाव हो ही नहीं सकता क्योंकि एक जमीन के टुकड़े से किसी को भी आत्मिक लगाव नहीं हो सकता।
परन्तु जिसके लिए भारत एक राष्ट्र है, जिसके लिए भारत उसकी माता है, वही सदैव अपनी इस पवित्र मातृभूमि को शत-शत नमन करता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक बच्चा अपनी मां को प्रणाम करता है।
हमें अपनी गौरवमयी संस्कृति को कदापि नहीं भूलना चाहिए चूंकि संस्कृति ही संस्कार की जननी है। संस्कृति है तो संस्कार हैं।
किन्तु यह विडंबना ही है कि इस भारत के कुछ भितरघाती, कुछ जयचन्द विदेशियों के हाथों की कठपुतली बनकर हमारी भारतीय संस्कृति को बदनाम करने का कुप्रयास कर रहे हैं। सत्ता पाने के लिए लालायित यह लोग हमारी सभ्यता और संस्कृति को नोच-नोचकर विदेशी मीडिया के सामने परोस रहे हैं।
हमें इन राष्ट्रद्रोहियों से अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाकर रखना ही होगा।
-मनोज चतुर्वेदी शास्त्री
सह-सम्पादक —उगता भारत