मनुष्य अपने जैसे दूसरे व्यक्तियों के साथ मिलकर रहना चाहता है. वह आत्मरक्षा के लिए सदैव उत्कंठित रहता है और इसके लिए वह कभी-कभी दूसरों से लड़ता भी है. ये सारी प्रवत्तियां राष्ट्रवाद के अंतर्गत समाविष्ट हो जाती हैं. राष्ट्रवाद मनुष्य के लिए स्वतः प्रेरित नहीं है, वह आधुनिक समाज की भावनात्मक और प्रेरणात्मक प्रवृत्तियों से पैदा होती है और इस रूप में अक्सर मनुष्य की बुद्धि से नहीं, प्रत्युत उसकी भावना से सम्बन्धित होता है.
आदर्शवादी दृष्टिकोण के अनुसार “राष्ट्रवाद किसी निश्चित भू-भाग के निवासियों की देशभक्ति की भावना को अभिव्यक्त करता है. इस चेतना का पोषण और विकास सामान्य भाषा और संस्कृति, शिक्षा के प्रसार, संचार और यातायात के साधनों का विस्तार, राजनीतिक दलों के विकास, लोकतान्त्रिक संस्थाओं की स्थापना और स्वतंत्र प्रेस के योगदान तथा शासन और अन्य सार्वजानिक मामलों में जनता के सक्रिय भागीदारी के द्वारा होता है.”
राष्ट्रवाद का अभिप्राय राष्ट्रीय एकता में निष्ठा रखना तथा जाति, धर्म, प्रान्त आदि के संकीर्ण दायरों से ऊपर उठकर देश की चतुर्मुखी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक उन्नति करने का प्रयास हो गया है. भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की पृष्ठभूमि की यह विशेषता है कि विशेषतः हिन्दू समाज और सामान्यतः सारा भारतीय समाज खंडित और विभाजित रहा है. हालाँकि कुछ विद्वानों का मानना है कि भारत में राष्ट्रीयता की भावना प्राचीन काल से ही रही है.
भारतीय चिंतकों में मानवतावादी रवीन्द्रनाथ टैगोर तथा मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित नव मानवतावादी मानवेन्द्रनाथ रॉय राष्ट्रवाद के आलोचक रहे हैं. रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भारत की जातिप्रथा तथा सामाजिक संकीर्णता के आधार पर राष्ट्रवाद के प्रसार को असम्भव बताया जबकि मानवेन्द्रनाथ रॉय ने राष्ट्रवाद को मार्क्सवादी श्रमिकों तथा सर्वहारा के अन्तर्राष्ट्रीय बंधुत्व के मार्ग में रूकावट बताया.
स्वामी दयानन्द सरस्वती को प्रथम राष्ट्रवादी कहा जा सकता है. भारतीय बौद्धिक पुनर्जागरण में राष्ट्रवाद के पूर्ण दर्शन स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों में होते हैं. स्वामी दयानंद सरस्वती ने ही सर्वप्रथम “स्वराज्य” शब्द का प्रयोग किया था. उन्होंने अपनी पुस्तक “सत्यार्थ प्रकाश” में लिखा है कि “विदेशी शासन चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, स्वराज्य या स्वशासन उससे भी अच्छा है”. स्वामी दयानंद ने ही सर्वप्रथम “भारत भारतीयों के लिए है” नारा दिया था.
विशेष – यह लेख “भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन” (ज्ञान सदन प्रकाशन) जिसके (लेखक मुकेश बरनवाल) की पुस्तक में से सम्पादित किये गए कुछ अंश पर आधारित है