आज चांदपुर में घूमने का मौका मिला, कुछ नुक्कड़ों पर राजनीति को लेकर चर्चाएं हुईं। उसमें जो लब्बोलुआब निकल कर आया उसको पेश कर रहा हूँ।
चांदपुर की जनता ख़ासतौर से मियां-भाई बहुत जज़्बाती हैं, यहां दिल से ज़्यादा और दिमाग़ से कम काम लिया जाता है। राजनीति में दिल का नहीं बल्कि दिमाग़ का इस्तेमाल होता है। और मेरा तज़ुर्बा है कि इस शहर में आज की तारीख़ में मियां-भाइयों में केवल एक ही शख़्स ऐसा है जो दिल से नहीं बल्कि दिमाग़ से काम लेता है। चांदपुर की राजनीति में यही एक ऐसा शख़्स है जिसका दिमाग दोधारी तलवार की तरह है। इस शख़्स को जो लोग बेहद करीब से जानते हैं वह मेरी बातों से पूर्णतया सहमत होंगे।
इस शख़्स की ख़ासियत है कि यह वहाँ से सोचना शुरू करता है जहां पर आम आदमी सोचना बंद कर देता है। चांदपुर की राजनीतिक बिसात पर यह शतरंज का वह मोहरा है जो चलता तो सिर्फ ढाई घर ही है, लेकिन इसकी शह के बीच में कोई दूसरा मोहरा नहीं आता।
जो लोग यह सोचकर खुश हो रहे हैं कि इस बार “नो ठेकेदार” उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि जो शख़्स 25-30 सालों से राजनीति में है, उसे हल्के में लेना नासमझी नहीं बल्कि मूर्खता है। दरअसल बहादुरी और मूर्खता में बहुत थोड़ा सा अंतर होता है, और राजनीति में इसी बारीक से अंतर का बहुत महत्व होता है। ख़ामोशी का मतलब यह नहीं होता कि आप चीखना नहीं जानते, ये और बात है कि अभी चीखने का सही वक्त नहीं आया। जो वक्त से पहले चीखने लगते हैं, वक्त आने पर वो अक्सर गूंगे हो जाया करते हैं।
इसलिए समझदार इंसान सही वक़्त का इंतजार करता है, और जो शख़्स ठेकेदार रहा हो, राजनीति में भी कामयाब रहा हो उससे ज़्यादा समझदार और सब्र करने वाला और कौन हो सकता है।
ठेकेदार जानता है कि परिंदे कितने भी ऊंचे उड़ जाएं, शाम को लौटकर घर पर ही आएंगे। फिलहाल चांदपुर क्षेत्र में मियां-भाइयों में अभी तो दूर-दूर तक कोई दूसरा चेहरा नहीं है।
इसीलिए तो कहता हूं कि “ठेकेदार” वो बला है जो शीशे से पत्थर को तोड़ दे।
-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”