भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी की मृत्यु के पश्चात से आजतक कांग्रेस की दिशा और दशा दोनों बिगड़ चुकी हैं। श्रीमती सोनिया गांधी ने काफी हद तक कांग्रेस की दशा और दिशा सुधारने में सफलता हासिल कर ली थी परन्तु उनकी बढ़ती आयु और गिरते स्वास्थ्य ने कांग्रेसी नेतृत्व को कमज़ोर कर दिया है। गांधी परिवार के एकमात्र चश्मो चिराग श्री राहुल गांधी से जो उम्मीदें गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी को थीं, उसपर राहुल आजतक खरे नहीं उतर पाए। और अब तो उनसे शायद ही किसी को कोई उम्मीद रह गई है, कहावत भी है कि आख़िरी वक्त में क्या खाक मुसलमाँ होंगे।
उधर प्रियंका गांधी कुछ भी कहें लेकिन सच यह है कि वह प्रियंका वाड्रा बन चुकी हैं, और अब न तो देश की जनता और न ही ख़ुद कांग्रेस पार्टी उनके नेतृत्व को गले उतार पा रही है। इस सबके बावजूद गांधी परिवार पार्टी पर अपनी पकड़ को ढीली नहीं करना चाहता है। सोनिया गांधी के विषय में यह कहा जा रहा है कि वह पुत्रमोह में अंधी हो रही हैं जबकि कड़वा सत्य यह है कि सोनिया गांधी पीवी नरसिंघा राव और सीताराम केसरी के कार्यकाल में हुई उठापटक और गांधी परिवार की ढीली पकड़ का अनुभव कर चुकी हैं। सीताराम केसरी को तो सही मायने में धक्के देकर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया था, जबकि पीवी नरसिंहा राव के ज़माने में हुए बाबरी विध्वंस का दंश अभी तक पार्टी नहीं भूल पाई है, जिसका खमियाजा आज तक उसे उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य में भुगतना पड़ रहा है।
दूसरी तरफ वरिष्ठ कांग्रेसी नेता भी जानते हैं कि यदि पार्टी की अध्यक्षता किसी भी ग़ैर-गांधी परिवार के व्यक्ति के हाथों में जाती है तो पार्टी के अंदर ही विरोध की चिंगारी पनप सकती है।
लेकिन दुविधा यह है कि राहुल गांधी किसी के गले नहीं उतर पा रहे हैं और वाड्रा परिवार की सीमा से अधिक दखलंदाजी भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के गले नहीं उतर पा रही है। यही कारण है कि कांग्रेस की कोर कमेटी भी चाहती है कि उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों से पहले ही कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का फैसला कर दिया जाये, परन्तु दिक़्क़त यह है कि बिल्ली के गले में घण्टी बांधेगा कौन?
दरअसल, सोनिया गांधी किसी भी कीमत पर यह नहीं चाहती हैं कि पार्टी की डोर उनके और उनके लाडले सुपुत्र के हाथों से छूट जाए, यानी सोनिया गांधी राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में “मन मौन सिंह” जैसे किसी वफ़ादार को ढूंढ रही हैं। लेकिन समस्या यह है कि गुलाम नबी आज़ाद से लेकर दिग्विजय सिंह तक कोई भी नेता वफ़ादारी की इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता दिखाई दे रहा है। दूसरी तरफ़ पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भी मालूम है कि वह आने वाले “मन मौन सिंह” ही बनने वाले हैं, असल डोर तो सोनिया और राहुल के ही हाथों में रहने वाली है। इसलिये कोई भी नहीं चाहता कि वह केवल कठपुतली बने। मज़े की बात यह है कि हर वरिष्ठ कांग्रेसी जानता है कि पार्टी की हालत बहुत खस्ता है, पार्टी लगातार चुनाव हार रही है, और कई जगहों पर तो शून्य पर भी आउट हो चुकी है। ऐसे में यदि कोई भी गैर-गांधी परिवार का व्यक्ति अध्यक्ष पद को संभालने का दुस्साहस करता भी है तो उसका अंत बहुत बुरा होगा क्योंकि उत्तरप्रदेश चुनाव का ठीकरा भी उसी के सर पर फूटेगा जबकि यदि इत्तेफ़ाक़ से पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन कर दिया तो उसकी वाहवाही गांधी परिवार को मिलेगी। मतलब सीधे-सरल शब्दों में कहा जाए तो गांधी परिवार और उसके शुभचिंतकों को बलि के बकरे की तलाश है।
ऐसे में फिलहाल कमलनाथ को बलि का बकरा बनाने की क़वायद चल रही है, देखना यह है कि क्या कमलनाथ जैसा सुलझा हुआ व्यक्तित्व और कुशल राजनीतिज्ञ बलि का बकरा बनने को तैयार हो पायेगा।
🖋️ *मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*
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