माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने हाल ही में गोहत्या के एक मामले में टिपण्णी करते हुए कहा कि – *”हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण हैं जब हम अपनी संस्कृति को भूले हैं, तब विदेशियों ने हम पर आक्रमण कर गुलाम बनाया है। आज भी हम न चेते तो अफगानिस्तान पर निरंकुश तालिबानियों का आक्रमण और कब्ज़े को हमें भूलना नहीं चाहिए।”*
माननीय उच्च न्यायालय की यह महत्वपूर्ण और समयानुकूल टिप्पणी निश्चित रूप से एक चेतावनी है जो कि भारत में रहने वाले प्रत्येक राष्ट्रभक्त को समझ लेनी चाहिए। यह एक सन्देश है जो कि उन लोगों के लिए एक सबक़ हो सकता है जो कि आज तक इसी भ्रम में जीवन जी रहे हैं कि-
*कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।*
*सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जमां हमारा।।*
भारत की यह विडंबना रही है कि यहां के कुछ लोगों ने भविष्य के खतरों के प्रति घोर लापरवाही बरतने की भूल की है। हम हमेशा से उस शुतुरमुर्ग की तरह आने वाले खतरों से अनभिज्ञ रहे जो रेत में मुहं देकर बैठ जाता है। हम कबूतर की तरह अपनी आंख मूंदकर यह सोचकर बैठे रहे कि बिल्ली हमें नहीं देख पाएगी। हम कभी इतिहास से यह सीख ही नहीं पाए कि हमारे पूर्वजों ने कब-कब औऱ क्या गलतियां की हैं, जिनकी सज़ाएं हम आजतक भुगत रहे हैं।
शायद इसीलिए किसी महान व्यक्ति ने लिखा कि-
*लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई है।।*
विडम्बना देखिये कि आज भी हम इस मुग़ालते में जी रहे हैं कि हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। हम यह क्यों भूल जाते हैं कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश के रूप में न जाने कितनी बार हमने अपनी मातृभूमि को खण्ड-खण्ड होते देखा है। आज पश्चिम बंगाल, केरल, आसाम, हैदराबाद, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश सहित कई राज्यों में अपेक्षाकृत हम काफ़ी कमज़ोर हो चुके हैं, हद तो यहां तक है कि हमारे दलित भाइयों को मस्जिदों के सामने से बारात निकालने पर प्रताड़ित किया जाता है। मेवात में वाल्मीकि भाइयों के साथ जुल्म और अत्याचार की कहानी कोई पुरानी नहीं है, कैराना सहित कई मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में किस प्रकार से लोग अपने मकान बेचकर भागने को मजबूर हो रहे हैं, यह सत्य किसी से छुपा नहीं है। कश्मीर में कैसे हिंदुओं के साथ जुल्मों-सितम किये गए, उसके बाद दिल्ली दंगों में अंकित शर्मा को कैसे चाकुओं से गोदा गया, देवी दुर्गा और भगवान हनुमान के मंदिरों में तोडफ़ोड़ की गई, महाराष्ट्र में दो निर्दोष और निहत्थे साधु-संतों की निर्मम हत्या, उत्तरप्रदेश में कमलेश तिवारी सहित कई अन्य हिन्दू नेताओं की हत्या और नरेशानन्द सरस्वती सहित कई अन्य साधु-संतों पर हमले क्या किसी से छुपे हैं? 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों में हुई तबाही का वह भयावह मंजर , उसके तुरन्त बाद दिल्ली दंगों का दंश अभी देश भुला भी नहीं पाया था कि पश्चिम बंगाल में हुई बर्बरता और वहशीपन ने एकबार फिर से हमें अंदर तक झकझोर कर रख दिया।
लेकिन जल्दी ही हम सबकुछ भूलकर फिर से पेट्रोल, सब्ज़ी, राशन और रोजमर्रा की जरूरतों को पूरी करने और महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के जाल में उलझ गए।
हम अपनी संस्कृति, सभ्यता, परम्पराओं, रीति-रिवाजों से पल-पल दूर होते जा रहे हैं। छद्म-सेक्युलिरिज्म के इस दलदल में हमारी संस्कृति और परम्पराएं धीमे-धीमे अंदर और अंदर धँसती जा रही हैं, और हम बेबस और लाचार किनारे पर खड़े होकर उनको दम तोड़ता हुआ देख रहे हैं।
इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि हमारे ही देश में हमारे आदर्श और प्रभु श्रीराम को काल्पनिक और हमारे पवित्र ग्रन्थों को कपोल-कल्पित बताया जाता है। और तो और हमें अपनी संस्कृति और परम्पराओं को जीवित रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालयों की आज्ञा लेनी होती है। हम अपने ही देश में अपनी हिन्दू संस्कृति का प्रचार-प्रसार नहीं कर सकते, हम वैदिक शिक्षा का ज्ञान नहीं दे सकते, हमें अपने पवित्र धार्मिक ग्रन्थों के पठन-पाठन की अनुमति नहीं है। इससे अधिक हास्यास्पद और क्या हो सकता है कि हम सांवले रंग को गोरा बनाने के लिए दुनिया भर की गन्दगी को अपने चेहरों पर लगाये घूमते हैं जबकि हमारे प्रभु श्रीराम और श्री कृष्ण दोनों ही सांवले थे। हम अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी और दैवीय भाषा संस्कृत को गंवारों और रूढ़िवादियों की भाषा मानते हैं, जबकि विदेशी भाषाओं का ज्ञान बांटते हुए गर्व से अपना सीना चौड़ा करते घूमते हैं। क्या यह सब उचित है?
हमें माननीय उच्च न्यायालय की टिप्पणी की गम्भीरता और उसमें छुपे भविष्य के संकेत को समझना ही होगा, अन्यथा आपका सबकुछ यहीं रह जायेगा और एक दिन आप भी हवाई जहाज पर लटकते नज़र आओगे।
🖋️ *मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*
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