मीडिया स्रोतों से ख़बर मिली है कि बसपा सुप्रीमों कुमारी मायावती “ब्राह्मण सम्मेलन” करा रही हैं। यह सुनकर अच्छा लगा कि जो कल तक “तिलक, तराजू और तलवार। इनके मारो जूते चार” का नारा लगाते थे, मनुस्मृति की प्रतियां जलाते थे और ब्राह्मणों को अत्याचारी और व्यभिचारी बताया करते थे। जिन्होंने पंडितों को हर की पैड़ी पर कुरान पढ़वाने की बात कही थी। आज वही लोग “ब्राह्मण सम्मेलन” करवा रहे हैं।
उधर “सिर्फ मुस्लिम बेटियां ही हमारी बेटियां हैं” और “ब्राह्मणों की कोई मदद न करे” कहने वाले भगवान श्री परशुराम जी की मूर्तियां लगवा रहे हैं।भगवान श्री परशुराम के चित्र लगवाने से क्या लाभ जब आप उनके चरित्र और आदर्शों को ही सिरे से नकार चुके हैं।
शायद वह भूल गए कि इनके गृह जनपद इटावा में ब्राह्मण समाज के परिवार की महिलाओं और बच्चों तक को जूते की माला पहनाकर और मुंह काला करके घुमाया गया। ऐसा करके एक वर्ग के लोगों ने अमानवीयता की सभी हदें पार कर दीं थीं, पर सुना जाता है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इतने गंभीर मामले को भी छोटी-मोटी घटना करार देते हुए ठोस कार्रवाई की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया था। सुलतानपुर जिले के इसौली विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से जीते इनकी पार्टी के तत्कालीन विधायक अबरार अहमद से जब ब्राह्मणों का एक प्रतिनिधिमंडल मिलने गया। तो उसने ताल ठोक कर कहा कि वो मुसलमान हैं और मुसलमानों के वोट से जीतकर आया है, कुछ हिंदु जाति के बैकवर्ड लोगों ने वोट दिया है। इसलिए वो ब्राह्मणों की कोई मदद नहीं करेगा। जब भी मदद करेगा तो वह मुसलमानों की मदद करेगा, क्योंकि वो मुसलमानों की वोट से जीतकर आया हैं। समाचार-पत्रों में छपी खबरों के अनुसार उसने यह भी कहा कि “अखिलेश यादव (तत्कालीन सीएम) ने कहा है कि यह सब (ब्राह्मण) बसपा और कांग्रेस के खास हैं, इनकी कोई मदद न की जाए। उस समय यह ख़बर कई समाचार-पत्रों की सुर्खियां बना था।
कल तक एक वर्ग विशेष के तुष्टिकरण की राजनीति में आकंठ तक डूबे जो लोग प्रभु श्रीराम के अस्तित्व को नकार रहे थे, श्रीरामभक्तों पर गोलियां चलवाकर अपनी पीठ थपथपा रहे थे। साधु-संतों का अपमान करने वालों के साथ खड़े थे। आज वही लोग श्री परशुराम के नाम की माला जप रहे हैं। अरे ब्राह्मणों, जरा सोचो *जो राम का नहीं हो सका वह परशुराम का क्या होगा?*
🖋️ *मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*
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*विशेष नोट- उपरोक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। उगता भारत समाचार पत्र के सम्पादक मंडल का उनसे सहमत होना न होना आवश्यक नहीं है। हमारा उद्देश्य जानबूझकर किसी की धार्मिक-जातिगत अथवा व्यक्तिगत आस्था एवं विश्वास को ठेस पहुंचाने नहीं है। यदि जाने-अनजाने ऐसा होता है तो उसके लिए हम करबद्ध होकर क्षमा प्रार्थी हैं।