सावरकर न केवल स्वाधीनता संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे, अपितु महान क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे. वे एक ऐसे इतिहासकार भी थे, जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रमाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया. उन्होंने १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता समर का सनसनीखेज व् खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिलाकर रख दिया था. ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तक पर प्रकाशित होने के पूर्व ही प्रतिबन्ध लगा दिया था. इस रूप में सावरकर भारत के पहले और दुनिया के एकमात्र लेखक थे, जिनकी किताब को प्रकाशित होने के पहले ही ब्रिटिश और ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था. बाद में इसे हालेंड में गुप्त तरीके से प्रकाशित किया गया. सावरकर दुनिया के पहले राजनीतिक कैदी थे, जिनका मामला हेग(नीदरलैंड) के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में चला था. इसके अतिरिक्त वे भारत के पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें अपने विचारों के कारण बैरिस्टर की डिग्री खोनी पड़ी. सावरकर ने ही वह पहला भारतीय झंडा बनाया था, जिसे जर्मनी में १९०७ की अन्तर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम कामा ने फहराया था. ये सारे ऐसे कारनामे थे, जो उनका एक महान देशभक्त होना सिद्ध करता है.
विनायक दामोदर सावरकर ने कहा था कि “हिंदुस्तान में हिन्दू स्वयं एक राष्ट्र है. इसके अतिरिक्त अन्य केवल मात्र एक समुदाय है, अंकों में अल्पसंख्यक”.
महारष्ट्र के ब्राह्मण परिवार में जन्मे विनायक दामोदर सावरकर भारत के एक महान क्रांतिकारी सपूत थे, जिनके ह्रदय में अपनी पवित्र मातृभूमि को विदेशी शासन के अपमान से मुक्ति दिलाने की ज्वाला प्रज्वल्लित हो उठी थी. परिणामस्वरूप उन्होंने अपने जीवन का काफी समय अंग्रेजों के कारावास में काटा. हिन्दू राष्ट्र की राजनितिक विचारधारा(हिदुत्व) को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता था. उन्होंने हिन्दुओं के लिए एक वैचारिक मंच तैयार किया, ताकि वे संगठित होकर एकजुट खड़े हो सकें. वे बीसवीं सदी के सबसे बड़े हिंदूवादी थे. उन्हें “हिन्दू” शब्द से बेहद लगाव था. वह कहते थे कि उन्हें स्वातन्त्र्य वीर की जगह “हिन्दू संगठक” कहा जाये. उन्होंने जीवन भर “हिन्दू-हिंदी-हिंदुस्तान” के लिए कार्य किया. उन्होंने राष्ट्रीयता की एक अनोखी और अनूठी परिभाषा रची. इस परिभाषा के दो स्तम्भ थे- पहला जन्मभूमि, जिसे उन्होंने “पितृभू” की संज्ञा दी और दूसरा धार्मिक विश्वास का उद्गम स्थल, जिसे उन्होंने “पुण्यभू” का नाम दिया. उन्होंने उद्बोधित किया- “हरेक व्यक्ति, जो सिंध नदी से सिन्धु, अर्थात समुद्र तक की भूमि को अपनी “पितृभू” और “पुण्यभू” मानता है, वही सच्चे अर्थों में हिन्दू है”. उनका मानना था कि- “हिन्दू जगत अपने आप में एक समुदाय और राष्ट्र के रूप में न केवल इस बात से जाना-पहचाना जाता है कि उनके लोगों की पुण्यभू, एक ही है वरन इस बात से भी कि वे समान संस्कृति, समान भाषा, समान इतिहास से बंधे है और अवश्यमेव उनकी पितृभू भी एक ही है.”
उनकी एक अत्यंत ही प्रसिद्ध एवं विवादित पुस्तक “हिदुत्व” अंडमान द्वीप में पोर्टब्लेयर के सेलुलर जेल में लिखी गई थी और वहां से तस्करी करके पुणे में पहुंचाई गई. उसे वी.जी. केलकर ने १९३२ में “एक मराठा” के छद्म नाम से प्रकाशित किया. उनकी जीवनी के लेखक धनंजय कीर ने उनके विषय में संक्षेप में ही बहुत कुछ कह दिया है- “सावरकर ने महासभा को एक हिन्दू घोषणापत्र, एक मंच, एक नारा, एक बाइबिल और एक ध्वज दिया”. नासिक जिले के कलेक्टर जैक्सन की हत्या में सहयोग के लिए नासिक षडयंत्र कांड के अंतर्गत इन्हें ७ अप्रैल, १९११ को काला पानी की सजा सुनाई गई. उनके अनुसार यहाँ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था. कैदियों को यहाँ नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था. साथ ही उन्हें कोल्हू में बैल की तरह जोतकर सरसों व् नारियल आदि का तेल निकालना होता था. इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ़ कर दलदली भूमि व् पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था. रुकने पर उनको कड़ी सजा दी जाती थी तथा बेंत व कोड़ों से उनकी पिटाई भी की जाती थी. इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना नहीं दिया जाता था. सावरकर ४ जुलाई १९११ से २१ मई १९२१ तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे. उन्होंने कागज-कलम के बिना जेल की दीवारों पर पत्थर के टुकड़ों से क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास को कविता के माध्यम से लिख दिया था. इनके नाम पर ही पोर्ट ब्लेयर के विमान क्षेत्र का नाम वीर सावरकर अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया है. १९२१ ईसवी में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर ३ साल के लिए और जेल की सजा भुगती थी. मार्च १९२५ ईसवी में उनकी भेंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डाक्टर हेडगेवार से हुई. १९३७ ईसवी में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए १९ वें सत्र के अध्यक्ष चुने गए. १९३८ ईसवी में हिन्दू महासभा को राजनीतिक दल घोषित किया गया. वे छह बार अखिल भारतीय हिन्दूमहासभा के अध्यक्ष चुने गए.
विशेष – यह लेख “भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन” (ज्ञान सदन प्रकाशन) जिसके (लेखक मुकेश बरनवाल) की पुस्तक में से सम्पादित किये गए कुछ अंश पर आधारित है
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