किन्तु 14 फरवरी को पुलवामा में हुई आतंकी घटना के पश्चात जिस प्रकार से तेज़ी से राजनीतिक घटनाक्रम बदले और एक बार फिर से देशभर में राष्ट्रवाद का तूफ़ान उमड़ा और “मोदी” नाम को संजीवनी प्राप्त हो गई और उसके बाद से ही गठबंधन के कान खड़े हो गए।
इसका प्रभाव यह पड़ा कि गठबंधन यह मान बैठा कि अब उसे सोशल इंजीनिरिंग का फार्मूला अपना लेना चाहिए और जिन क्षेत्रों में सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं वहाँ पर किसी गैर-मुस्लिम को प्रत्याशी बनाना बेहतर हैं, ऐसा सूत्रों का मानना हैं।
चूंकि बिजनौर भी उन दंगाग्रस्त इलाकों की लिस्ट में आता है, इसलिए यहाँ से भी किसी गैर-मुस्लिम को गठबंधन प्रत्याशी बनाये जाने पर विचार किया जा रहा है. कुछ लोगो का तर्क है कि यदि किसी गैरमुस्लिम को टिकट दिया जाएगा तो उसे मुस्लिम वोट भी आसानी से मिल जाएगा, जबकि इसके विपरीत किसी मुस्लिम प्रत्याशी को खड़ा किया जाता है तब उसे हिन्दू वोट मिलना बेहद मुश्किल होगा।
इस तर्क में कितना दम है यह तो आने वाला वक़्त ही तय करेगा।
लेकिन इतना तय है कि हिंदुस्तान की राजनैतिक पार्टियां शायद हिंदुस्तान के मुसलमानों को भेड़ बकरियां ही समझती हैं।
यह मैं इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि यदि मुसलमानों के टिकट यूं ही कटते रहेंगे? औऱ क्या इसलिए कटते रहेंगे कि हिन्दू भाई किसी मुस्लिम उम्मीदवार को वोट नही देंगे, जबकि पूर्णतया एक कुतर्क है, एक भ्रम है।
आखिर क्या मुस्लिम समाज मात्र एक वोटबैंक ही है? क्या मुसलमानों को ये हक नहीं कि वह अपनों में से ही अपना एक प्रतिनिधि खड़ा कर सकें? क्या सोशल इंजीनिरिंग के नाम पर मुस्लिम उम्मीदवारो की ऐसे ही बलि दी जाती रहेगी? इन सवालों के जवाब आज नहीं तो कल किसी न किसी को तो देने ही होंगे।
*-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*