ॐ इस प्रकार, धर्म जानने का कारण और जगत की उत्पत्ति संक्षेप से कही गई है. अब वर्णधर्म कहे जाते हैं. जो वैदिक पुण्यकर्म हैं, उनसे द्विजातियों का गर्भाधानादि शरीर संस्कार करना चाहिए. जो कि, दोनों लोक में, पवित्र करने वाला है. गर्भादान संस्कार, जातकर्म, चूडाकर्म, मौज्जीबंधन, इन संस्कारों से, शुक्र और गर्भ सम्बन्धी दोष, द्विजातियों के निर्वत्त होते हैं. वेद अध्ययन, व्रत, होम, इज्या-ब्रह्मचारी दशा में देव-पितृतर्पण, पुत्रोत्पादन, महायज्ञ-पञ्च महायज्ञ, यज्ञ ज्योतिप्तोमादि, इन सब कर्मों के करने से, यह शरीर ब्रह्मभाव पाने योग्य होता है. (श्लोक: २५-२८)
बालक का, नाभिछेद के पूर्व, जातकर्म-संस्कार करे, और अपने गुह्य सूत्रोक्त विधि के अनुसार, सुवर्ण, मधु और घृत का प्राशन (चटाना) करावे. फिर आशीष निर्वत्त हो जाने पर, दसवें या बारहवें दिन, शुभतिथि-मुहूर्त-नक्षत्र में, बालक का नामकरण करे.( श्लोक:२९-३०)
ब्राह्मण का नाम मंगलवाचक शब्द, क्षत्रिय का बलवाचक, वैश्य का धनयुक्त और शूद्र का दासयुक्त नाम होना चाहिए. ब्राह्मणों के नाम में शर्मा, क्षत्रियों के वर्मा, वेश्यों के भूति और शूद्रों के दास लगाना चाहिए. स्त्रियों के नाम सुख से उच्चारण योग्य, क्रूर न हो, वह साफ़, सुंदर मंगलवाची, अंत में दीर्घाक्षरवाला और आशीर्वाद शब्द से मिला हो. (श्लोक:३१-३३)
बालक को चौथे महीने घर से बाहर निकालें. छठे महीने में उसको अन्न खिलावे, या जैसी रीति अपने कुल में हो वैसा करे. चुडाकर्म, पहले या तीसरे वर्ष करे, यह वेद की आज्ञा है. ब्राह्मण बालक का गर्भवर्ष से आठवें वर्ष यज्ञोपवीत करे, क्षत्रिय का ग्यारहवें वर्ष और वैश्य का बारहवें वर्ष करना चाहिए. (श्लोक:३४-३६)
क्रमश:
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री