ॐब्राह्मण, यदि दुसरे का दिया अन्न भोजन करे, या वस्त्र पहने, या दान देवे, तो भी वह सब ब्राह्मण का ही है. और लोग तो ब्राह्मणों की कृपा से भोजन पाते हैं. ब्राहमण और क्षत्रियों के कर्म विवेक के लिए स्वयम्भू मनु ने यह धर्मशास्त्र बनाया है. विद्वान् ब्राह्मण को यह धर्मशास्त्र पढना और शिष्यों को पढ़ाना चाहिए. और किसी को उपदेश न करना चाहिए. नियमनिष्ठ ब्राह्मण जो इस शास्त्र का अध्ययन करता है, वह मन, वाणी, देह के पापों से लिप्त नहीं होता. धर्मशास्त्र विशारद, अपवित्र पांति को पवित्र कर देता है और अपने वंश के सात पिता, पितामह आदि पुत्र, पौत्र आदि को पवित्र कर देता है. और सारी पृथ्वी को भी वह लेने योग्य है.(१०१-१०५)
यह शास्त्र, कल्याणदायक, बुद्धिवर्धक,यशदायक, अयुवर्धक और मोक्ष का सहायक है. इस स्मृति में सारे धर्म कर्म कहे हैं. कर्मों के गुण दोष भी कहे हैं. और चारों वर्णों का परम्परा से प्राप्त आचार कथन किया गया है. श्रुति और स्मृति में कहा आचार परमधर्म है. इसलिए इसमें ब्राह्मणों को सदा तत्पर रहना चाहिए.(१०६-१०८)
अपने आचार से हीन ब्राह्मण वेदफल को नहीं पाता और जो आचारयुक्त है, वह फलभागी होता है. इस प्रकार मुनियों ने, आचार से धर्म प्राप्ति देखकर, धर्ममूल आचार को ग्रहण किया है.(१०९-११०)
क्रमश:
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री