लखीमपुर खीरी में गिद्धों की जमात एकत्रित हो रही है। लाल, नीले, सफेद कपड़े पहने कई जवान और बूढ़े गिद्ध वहां मंडरा रहे हैं, लाशों को नोचने को तैयार हैं। उन गिद्धों में होड़ सी मची है कौन ज़्यादा नोचकर ले जाएगा। यह मांसाहार नहीं सत्ताधारी गिद्ध हैं जिन्हें मांस नहीं भाता है बल्कि वोट की लालसा रहती है। इतनी गर्मियों में भी यह गिद्ध उत्तरप्रदेश के लखीमपुर खीरी में डेरा डाले पड़े हैं, कोई श्रीनगर जाने को तैयार नहीं है। लाशें तो वहां भी हैं, दो-दो मासूम और निर्दोष शिक्षकों की, लेकिन समस्या यह है कि उन लाशों को नोचने से वोट नहीं मिल सकते। वहां गोलियां मिलती हैं, गद्दियां नहीं। वहां “शांतिदूत” रहते हैं इसलिए यह “क्रांतिदूत” वहां जाने को तैयार नहीं है। क्योंकि यह जानते हैं कि अगर वहां गए तो सीधे गोलियां मिलेंगी, गद्दियां नहीं। और अगर इन्हें किसी ने गोली मार दी तो इनकी लाशों पर कोई रोने वाला भी नहीं मिलेगा। इनके अपने ही इनकी।लाशों को नोचने लगेंगे, क्योंकि गिद्धों को तो लाश चाहिए नोचने के लिए, भले ही वह उनके अपनों की ही क्यों न हो। इसलिए उत्तरप्रदेश में आराम फरमा रहे हैं, छातियाँ पीट रहे हैं।
एक लोमड़ी ने आवाज़ लगाई और हजारों गिद्ध पहुंच गए दावत के लिए। लोमड़ी धूर्त और मक्कार है, वह जानती है कि श्रीनगर में रोने से कुछ नहीं मिलेगा, लेकिन उत्तरप्रदेश में विलाप करने से “कुछ” मिल सकता है। इस लोमड़ी ने जिस बूढ़े गिद्ध को कंधे पर बैठा रखा है उसके पंख और नाखून भी झड़ने लगे हैं, लेकिन शायद लखीमपुर खीरी में उसे पुनर्जीवन मिल जाये। लखीमपुर खीरी उस बूढ़े गिद्ध के लिए संजीवनी सिद्ध हो सकती है, बस इसी आशा में लोमड़ी वहाँ साफ-सफाई कर रही है।
लाल-नीले गिद्ध भी ख़ूब शोर मचा रहे हैं, लेकिन लोमड़ी की चीख-चिल्लाहट के सामने भला इन लाल-नीले कमज़ोर गिध्दों की फुसफुसाहट का क्या मोल है। उधर एक भेड़िया भी बहुत परेशान है, क्योंकि सारी दावत पर तो उस ही का अधिकार था। वही तो है जिसने सारा चक्रव्यूह रचा था। पिछले कई माह से वह लाशों से ही तो पेट भर रहा है। कहाँ से नई लाश का इंतज़ाम हो, बस इसी को लेकर यह भेड़िया हमेशा परेशान रहता है। नित नई लाश का सौदा जो करना है।
गिद्ध, लोमड़ी और भेड़िया कभी किसी की मौत का मातम नहीं मनाते बल्कि यह तो सदैव जश्न मनाते हैं, केवल जश्न। क्योंकि मौत पर जश्न मनाना ही इनकी फ़ितरत है। लाशों पर नृत्य करते यह लोमड़ी, भेड़िए और गिद्ध अब धीरे-धीरे उड़ने लगेंगे, किसी नए शिकार की तलाश में, किसी नए श्मशान के आसपास, यह आपको फिर से मंडराते मिल जाएंगे।
लेकिन श्रीनगर नहीं जायेंगे क्योंकि वहां नोचने को कुछ नहीं है।
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🖋️ *मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*
समाचार सम्पादक- उगता भारत हिंदी समाचार-
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