“वन्देमारतम” कोई शब्द नहीं है बल्कि एक संस्कार है, एक संस्कृति, एक सभ्यता है। यह सम्पूर्ण राष्ट्र की अभिव्यक्ति है, राष्ट्रगीत है। इस एक शब्द से सभी भारतवासियों की भावनाएं जुड़ी हुई हैं।
वन्देमातरम आज़ादी का वह तराना है जिसे गाते हुए अशफ़ाक उल्ला ने फांसी का फंदा चूम लिया था।
वन्देमातरम 24 जनवरी 1950 को राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया गया था। हालांकि महात्मा गांधी ने 1905 में ही वन्देमातरम को राष्ट्रगीत बनाने की पैरवी की थी।
लेखक और राजनेता आरिफ मौहम्मद खान ने लिखा है कि “वन्देमातरम का विरोध मुस्लिम लीग ने शुरू किया था, इसका कोई कारण इस्लाम में नहीं है। यह विभाजनवादी राजनीति है। राष्ट्रगीत के विरोधी संवैधानिक आदर्शों को ख़ारिज करते हैं”.
शिक्षाविद फिरोज बख्त अहमद ने लिखा था कि “एक मुस्लिम की हैसियत से मैं देशवासियों विशेषकर मुस्लिम समाज से कहूंगा कि कुछ लोग राजनीति से प्रेरित होकर वन्देमातरम को भावनात्मक मुद्दा बनाने की कोशिश करते हैं”।
मौलाना अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में कांग्रेस के कई अधिवेशनों में वन्देमातरम गाया गया। लेकिन कांग्रेस के ही एक अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए मौहम्मद अली जौहर ने वन्देमातरम गीत के कुछ अंशों पर आपत्ति व्यक्त की थी जिसके चलते कांग्रेस ने 1937 में इस गीत को संक्षिप्त कर दिया था।
वन्देमातरम का विरोध राजनीतिक कारणों से ही हुआ था जिसकी नींव मुस्लिम लीग के अमृतसर अधिवेशन में हुई थी जिसमें लीग के तत्कालीन अध्यक्ष सैयद अली इमाम ने वन्देमातरम पर हमला बोला था। उसके बाद जिन्ना ने वन्देमातरम के विरोध को अपना हथियार बनाया और सबको मालूम है कि जिन्ना ने किस प्रकार देश को विभाजित करने में अपनी अहम भूमिका निभाई थी।
दरअसल वन्देमातरम का विरोध करने वाले लोगों ने हमेशा से ही इसे हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। हाल ही में जिस प्रकार से संसद भवन में सम्भल से सपा सांसद शफीकुर रहमान बर्क़ ने वन्देमातरम का न केवल विरोध किया बल्कि उसे इस्लाम विरोधी भी करार दे दिया और उसके बाद सपा सांसद आजम खान ने भी वन्देमातरम का खुलकर विरोध किया है, उससे क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता कि समाजवादी पार्टी आज वही भूमिका निभा रही है जो किसी वक़्त मुस्लिम लीग ने निभाई थी। उससे भी बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि स्वघोषित राष्ट्रवादीयों ने न तो बर्क़ पर कोई कार्यवाही की और न ही आजम खान का ही कोई विरोध हुआ, तो क्या इसका अर्थ यह निकाला जाए कि जो भूमिका एक समय मुस्लिम लीग के सामने कांग्रेस ने निभाई थी, समाजवादी पार्टी के सामने ठीक वही भूमिका आज भाजपा निभा रही है।
यानी अभी तक कुल मिलाकर दोनों ही पार्टियां वन्देमातरम पर विभाजनवादी राजनीति करती नज़र आ रही हैं।
बाबरी मस्ज़िद से लेकर कई तमाम फैसलों पर मुस्लिम संगठनों और उनके आकाओं का एकमत है कि वह भारत के संविधान में विश्वास रखते हैं। परन्तु संविधान और राष्ट्रभाव के प्रतीक राष्ट्रीय गीत वन्देमातरम को यथोचित सम्मान न देना क्या औचित्यपूर्ण माना जा सकता है? या फिर मीठा-मीठा गप-गप और कड़वा-कड़वा थू-थू.
*-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*