कहते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। आज लगता है कि इतिहास वाकई में अपने आपको दोहरा रहा है।
आजकल जो हालात हैं उनको देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो हम वापस 1947 के दौर में लौट आये हों। एक तरफ़ माननीय श्री नरेन्द्र मोदी अपने आपको महात्मा गांधी सिद्ध करने पर तुले हैं, तो दूसरी ओर गृहमन्त्री श्री अमित शाह सरदार वल्लभभाई पटेल की भूमिका निभाने में लगे हैं। उधर असदुद्दीन ओवैसी साहब को जिन्ना बनाए जाने का राजनीतिक प्रयास किया जा रहा है। कल के पीयूष गोयल साहब के बयान के बाद ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो वह अपने आपको जवाहरलाल नेहरू समझने लगे हों और by mistek हिन्दू बन गए हों। उधर हिन्दू राष्ट्र और हिन्दू सरकार का सपना संजोने वाले वीर सावरकर की भूमिका निभा रहे श्री प्रवीण तोगड़िया साहब का कहीं कोई अता-पता नहीं है। अलबता संघ आज भी जीवित है और क्रियाशील भी है।
सही मायनों में AIMIM यानी मीम पार्टी पूरी तरह से मुस्लिम लीग की भूमिका में उतर चुकी है, लेकिन कांग्रेस का वजूद बिल्कुल अंग्रेजों की तरह हो चुका है। जिस प्रकार 1947 में अंग्रेज भारत में अपने विदाई समारोह की तैयारी कर रहे थे, आज उसी प्रकार कांग्रेस भी अपने विदाई समारोह की तैयारियों में जुटी है।
1947 में जिस प्रकार से लोगों के दिलों में मौहब्बत-भाईचारे की भावना समाप्त होकर उसकी जगह आपसी वैमनस्य, घृणा और नफ़रत की चिंगारी सुलगने लगी थी, आज कमोवेश वही स्थिति फिर से पैदा होने लगी है। इसके लिए किसी एक संगठन, किसी एक नेता या सम्प्रदाय विशेष को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।
दरअसल असल झगड़ा तो सत्ता का है, जनता तो केवल गेहूं के साथ घुन की तरह पिस रही है।
1947 में भी झगड़ा केवल सत्ता का ही तो था, जिन्ना चाहते थे कि वह प्रधानमंत्री बनें और नेहरू चाहते थे कि वह सत्ता सम्भालें। बस असल झगड़ा इन दोनों की सत्तालोलुपता और राजीतिक स्वार्थ सिद्धि का था, जिसमें जनता बेवजह पिसती रही।
आज भी कमोवेश वही स्थिति है ,झगड़ा आज भी सत्ता का ही तो है, लेकिन पिस रही है बेचारी आम जनता।
इतनी मॉबलिंचिंग हुईं लेकिन एक भी नेता, अभिनेता, व्यापारी या कोई सफेदपोश समाजसेवी नहीं मरा और न ही मारने वालों में शामिल रहा है।
आप विडंबना देखिए कि मरने वाला भी और मारने वाला भी, दोनों ही ग़रीब और मजबूर लोग हैं, गुमनाम हैं, अपनी जिंदगी से ही परेशान हैं।
दुःख की बात तो यह है कि कोई हिन्दू है तो कोई मुसलमान है, लेकिन एक भी कमबख्त इंसान कहलाने लायक नहीं है। *मैं मॉबलिंचिंग को अगर संविधान की हत्या कहूँ तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।*
इतिहास गवाह है कि सत्ताओं के लिए निर्दोषों का खून बहा है, ग़रीबों की कुरबानियां दी गईं हैं, बहन-बेटियों की आबरू दांव पर लगी हैं, हजारों-लाखों माँओं की गोद सुनी हुई है, सुहागनों की मांग उजड़ी है, बच्चों के सर से साया उठा है, बहनों की राखियाँ आंसू बहाती रही हैं। लेकिन सत्ता ने आज तक खून पीना नहीं छोड़ा, यह आज भी डायन की डायन ही है।
क्या हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं? क्या हम एक नया इतिहास बना पाएंगे? या फिर उसी काले इतिहास को एक बार फिर दोहराया जाएगा जिसपर आज भी मानवता फूट-फूट कर रोती है।