प्रतीकात्मक |
मुसलमान गलत हो सकता है लेकिन इस्लाम गलत नहीं हो सकता. दिक्कत ये है कि आज मुसलमान इस्लाम की शिक्षाओं से भटक गया है. आज केवल मांस खाना और एक पार्टी/संगठन विशेष को कोसना ही मुसलमान होने के मायने रह गए हैं. ये सब मैं यूँ ही नहीं कह रहा बलिक इसका ठोस सबूत भी दे रहा हूँ. मैंने इस्लाम को बहुत करीब से जाना है, मैं जानता हूँ कि अगर दुनिया का हर मुसलमान इस्लाम और हुजुर (सल.) की शिक्षाओं पर अमल करे तो दुनिया में मुसलमान सबसे बेहतरीन कौमों में से एक हो जाये. लेकिन आज का मुसलमान विशेषतः हिंदुस्तान का मुसलमान इस्लाम को पढ़ता तो है लेकिन उसे समझता नहीं है. आज हिंदुस्तान का मुसलमान दीन और दुनिया दोनों से दूर हो गया है. हालाँकि गलती अकेले मुसलमान की नहीं है, कुछ गलतियाँ हमारी भी हैं. हम सभी को एक ही नजर से देखते हैं, हमारा मानना है कि हिंदुस्तान केवल हिन्दूओं का है और पाकिस्तान मुसलमानों का. आज जिस खौफ की राजनीति की जा रही है उससे चंद लोगों को फायदा हो रहा है लेकिन आने वाली नस्लों को जो नुकसान होगा उसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता. इतिहास गवाह है कि राजनीति हमेशा लाशों पर हुई है और सियासत खौफ की सत्ता को पानी देती है. आज ८० प्रतिशत लोगों को मात्र 20 प्रतिशत लोगों का खौफ दिखाकर गद्दी हासिल कर ली जाती है. अबसे पहले तुष्टिकरण की राजनीति कर गद्दियाँ हासिल की गईं. दंगो की इबारत हमेशा राजनेताओं के कलम से लिखी जाती है लेकिन दंगों में मरने वाला कोई भी नेता नहीं होता. अख़लाक़ मरे या चन्दन गुप्ता लेकिन मरने वाला एक आम इन्सान ही होता है.
आज जो कुछ भी मैं लिख रहा हूँ उसका एक-एक शब्द सही है इसमें कुछ भी काल्पनिक नहीं है क्योंकि इसका मैं चश्मदीद गवाह हूँ और मुद्दई भी. आज से ३०-३२ साल पहले जब मैं 11वी कक्षा में पढ़ता था, तब मेरा एक दोस्त गजनफर (जो आज इस दुनिया में नहीं है) जो कि पतियापाडा में रहता था, एक शाम मेरे पास आया और बोला कि तुझे मेरे साथ चलना है. मैंने उससे पूछा कि क्यों क्या बात है? उसने कहा कि रास्ते में बता दूंगा. मैं उस वक्त अपने घर पर था और मैंने एक बनियान और पायजामा पहन रखा था. मैंने उससे कहा कि मैं कपड़े बदल लूँ, वो बोला नहीं, तू ऐसे ही मेरे साथ चल. उसने मुझसे कहा कि कोई “सामान” लेकर मत चलना. यहाँ बता दूं कि कॉलेज टाइम में हम लोग हॉकी लेकर चलते थे ताकि लड़ाई-झगड़े में काम आ सके और उसी को “सामान’ कहा जाता था. लेकिन मैं कभी हॉकी लेकर नहीं चलता था बल्कि एक चेन जो बुलेट की थी और एक पीतल का बुत जो अक्सर मेरे हाथ में रहता था, लेकर चलता था. जब ये दोनों मेरे पास होते थे जो ८-10 लोगों को भी मैं अकेला भारी पड़ता था. ये बात गजनफर जानता था इसीलिए उसने मुझसे मना कर दिया था. मेरे साथ उस समय मेरा एक दोस्त जाहिद भी बैठा था जो कि आज इस दुनिया में नहीं है उसकी मौत हेपेटाइटिस से हो गई थी. जब हम दोनों गजनफर के साथ चले तब गजनफर ने मुझसे रास्ते में कहा कि “मनोज, तू आ तो गया मेरे साथ लेकिन वापस नहीं जा पायेगा”. मैंने पूछा क्यों? वो बोला तूने एक इमाम साहब को धमकाया है, इसलिये तुझे मारा जायेगा. इसको सुनकर मेरे दुसरे दोस्त जाहिद जो कि मुस्लिम ही था, ने कहा कि मनोज वापस चल. लेकिन मैं अपनी जिद पर अड़ गया कि देखा जायेगा. सबकुछ जानकर भी मैं उसके साथ चला गया. हम लोग एक मस्जिद में पहुंचे जहाँ पर कई लोग हाथों में हथियार लिए खड़े थे, मुझे वो लोग अंदर ले गए और मेरे दोस्त बाहर रह गए. जो हथियारबंद लोग वहां मौजूद थे उनमें से कई ऐसे थे जिन्हें मैंने कभी न कभी कूटा था और वो लोग मुझसे अकेला लड़ने की हिम्मत नहीं करते थे. उन लोगों ने मस्जिद में ले जाकर मेरी तलाशी ली और जब वो बेफिक्र हो गए कि मेरे पास चेन और बुत नहीं है तब उन्होंने इमाम साहब को बुलाया, और उनसे पूछा कि “इमाम साहब, क्या यही है जिसने आपको धमकाया था”. इमाम साहब ने मुझे गौर से देखा और बोले नहीं, ये वो नहीं है. उन्होंने उनसे कहा कि आप डरिये मत, बस एक इशारा कर दीजिये और बाकी हम पर छोड़ दीजिये. लेकिन इमाम साहब अपनी बात से टस से मस नहीं हुए और उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि ये वो शख्स नहीं है. तब उनमें से एक ने कहा “इमाम साहब ये काफिर है, आप बस हाँ कर दीजिये.” इमाम साहब ने उसे जवाब दिया कि अगर कोई मुसलमान मुझे धमकाता तो क्या आप लोग उसे छोड़ देते? इस बात का कोई जवाब उन लोगों के पास नहीं था. वो खामोश हो गए. इमाम साहब ने कहा कि इसे इज्जत के साथ घर छोड़ कर आओ. मैं अपने घर लौट आया लेकिन उस घटना का जिक्र मैंने किसी से भी नहीं किया.
अगले दिन सुबह वही इमाम साहब ढूंढते-2 हुए मेरे घर आये, और माफ़ी मांगते हुए बोले “बेटे, कल जो कुछ भी हुआ उसके लिए मैं बेहद शर्मिंदा हूँ, इस्लाम बदला नहीं सिखाता. मैं एक इमाम हूँ और मैंने इस्लाम को जितना समझा है उसके मुताबिक किसी काफ़िर को भी बुरा नहीं कहना चाहिए क्योंकि क्या पता वो भी कल मुसलमान बन जाये. उन्होंने कहा कि बेटे, हमारा इस्लाम कहता है कि “तुम जमीं वालों पर रहम फरमाओ, ऊपर वाला तुम पर रहमत बरसायेगा”. वो बोले कि आज मैं तुम्हारे पास इसलिए आया हूँ कि चंद लोगों की गलतियों और बदले की सोच के चलते तुम जिन्दगी भर इस्लाम और पूरी कौम को गलत समझते रहोगे. “बेटे मुसलमान गलत हो सकता है लेकिन इस्लाम गलत नहीं है.” हालाँकि ये बात आज भी एक राज ही है कि उन इमाम साहब को धमकाने वाला कौन था लेकिन मुझे बाद में मालूम हुआ कि उस मामले में मुझे झूठा फंसाने वाला मेरे ही मौहल्ले का ही एक शख्स था जिसका परिवार इस शहर को छोड़कर जा चूका है.
एक दूसरी घटना हुई थी, सन १९९२ में, जब चांदपुर में बाबरी मस्जिद के बाद तनाव हुआ था और पुरे शहर में “अल्लाह हूँ अकबर” और “हर-हर महादेव के नारे गूँज रहे थे”. उस समय मैं मौहल्ला इमामबाड़ा में अपने दो दोस्तों रंगा और हफीज के साथ इमामबाड़ा के सामने वाले मकान में बैठा खाना खा रहा था. जैसे ही नारों का शोर और फायरिंग की आवाज हुई तो हफीज ने कहा कि “मनोज निकल जा, लड़ाई शुरू हो गई”. मैंने उनसे कहा कि जब मरना ही है तो खा-पीकर ही मरूँगा. इसी बीच कुछ दाढ़ी वाले उस मकान में आ गए और कट्टर बातें शुरू कर दीं. उन्हें नहीं पता था कि मैं हिन्दू हूँ और मेरा नाम मनोज है. इसी बीच एक इमाम साहब आये और बातें करने लगे और बातों ही बातों में उन्हें ये मालूम हो गया कि मैं एक हिन्दू हूँ. इतना पता चलते ही चंद लोगों की निगाहें बदल गईं लेकिन वो इमाम साहब, रंगा से बोले कि इन्हें फौरन इनके घर तक छोड़कर आओ. इसपर वहां बैठे लोगों ने ऐतराज किया तब इमाम साहब ने कहा कि “ आज अगर इस शख्स को कुछ हो गया तो मैं जिन्दगी भर ये अफ़सोस करता रहूँगा कि मैं मुसलमान होने का फर्ज नहीं निभा पाया. हमारी पूरी कौम बदनाम हो जाएगी और मैं जिन्दगी भर अपने आपसे निगाह नहीं मिला पाउँगा, क्योंकि ये शख्स हमपर भरोसा करे बैठा है और इसका ये भरोसा कायम रहना चाहिए क्योंकि एक मुसलमान कभी गद्दार नहीं हो सकता.” उसी वक्त वो लोग मुझे साईकिल पर बैठाकर भगत परचून वालों की दुकान तक छोड़ गए जहाँ से हिन्दू इलाका शुरू होता है.
इन घटनाओं को एक जमाना बीत गया लेकिन आज भी एक-एक शब्द मुझे याद है, ऐसा लगता है कि मानों कल ही की बात हो. ये दोनों घटनाएँ बिलकुल सच्ची हैं और आज भी उन घटनाओं के कुछ चश्मदीद गवाह इस चांदपुर में मौजूद हैं.
मैं नहीं जानता कि वो दोनों इमाम साहब आज इस दुनिया में हैं भी या नहीं लेकिन ऊपर वाले से दुआ करता हूँ कि वो जहाँ कहीं भी हों खुश रहें, आबाद रहें.
आज जो कुछ भी मैं लिख रहा हूँ उसका एक-एक शब्द सही है इसमें कुछ भी काल्पनिक नहीं है क्योंकि इसका मैं चश्मदीद गवाह हूँ और मुद्दई भी. आज से ३०-३२ साल पहले जब मैं 11वी कक्षा में पढ़ता था, तब मेरा एक दोस्त गजनफर (जो आज इस दुनिया में नहीं है) जो कि पतियापाडा में रहता था, एक शाम मेरे पास आया और बोला कि तुझे मेरे साथ चलना है. मैंने उससे पूछा कि क्यों क्या बात है? उसने कहा कि रास्ते में बता दूंगा. मैं उस वक्त अपने घर पर था और मैंने एक बनियान और पायजामा पहन रखा था. मैंने उससे कहा कि मैं कपड़े बदल लूँ, वो बोला नहीं, तू ऐसे ही मेरे साथ चल. उसने मुझसे कहा कि कोई “सामान” लेकर मत चलना. यहाँ बता दूं कि कॉलेज टाइम में हम लोग हॉकी लेकर चलते थे ताकि लड़ाई-झगड़े में काम आ सके और उसी को “सामान’ कहा जाता था. लेकिन मैं कभी हॉकी लेकर नहीं चलता था बल्कि एक चेन जो बुलेट की थी और एक पीतल का बुत जो अक्सर मेरे हाथ में रहता था, लेकर चलता था. जब ये दोनों मेरे पास होते थे जो ८-10 लोगों को भी मैं अकेला भारी पड़ता था. ये बात गजनफर जानता था इसीलिए उसने मुझसे मना कर दिया था. मेरे साथ उस समय मेरा एक दोस्त जाहिद भी बैठा था जो कि आज इस दुनिया में नहीं है उसकी मौत हेपेटाइटिस से हो गई थी. जब हम दोनों गजनफर के साथ चले तब गजनफर ने मुझसे रास्ते में कहा कि “मनोज, तू आ तो गया मेरे साथ लेकिन वापस नहीं जा पायेगा”. मैंने पूछा क्यों? वो बोला तूने एक इमाम साहब को धमकाया है, इसलिये तुझे मारा जायेगा. इसको सुनकर मेरे दुसरे दोस्त जाहिद जो कि मुस्लिम ही था, ने कहा कि मनोज वापस चल. लेकिन मैं अपनी जिद पर अड़ गया कि देखा जायेगा. सबकुछ जानकर भी मैं उसके साथ चला गया. हम लोग एक मस्जिद में पहुंचे जहाँ पर कई लोग हाथों में हथियार लिए खड़े थे, मुझे वो लोग अंदर ले गए और मेरे दोस्त बाहर रह गए. जो हथियारबंद लोग वहां मौजूद थे उनमें से कई ऐसे थे जिन्हें मैंने कभी न कभी कूटा था और वो लोग मुझसे अकेला लड़ने की हिम्मत नहीं करते थे. उन लोगों ने मस्जिद में ले जाकर मेरी तलाशी ली और जब वो बेफिक्र हो गए कि मेरे पास चेन और बुत नहीं है तब उन्होंने इमाम साहब को बुलाया, और उनसे पूछा कि “इमाम साहब, क्या यही है जिसने आपको धमकाया था”. इमाम साहब ने मुझे गौर से देखा और बोले नहीं, ये वो नहीं है. उन्होंने उनसे कहा कि आप डरिये मत, बस एक इशारा कर दीजिये और बाकी हम पर छोड़ दीजिये. लेकिन इमाम साहब अपनी बात से टस से मस नहीं हुए और उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि ये वो शख्स नहीं है. तब उनमें से एक ने कहा “इमाम साहब ये काफिर है, आप बस हाँ कर दीजिये.” इमाम साहब ने उसे जवाब दिया कि अगर कोई मुसलमान मुझे धमकाता तो क्या आप लोग उसे छोड़ देते? इस बात का कोई जवाब उन लोगों के पास नहीं था. वो खामोश हो गए. इमाम साहब ने कहा कि इसे इज्जत के साथ घर छोड़ कर आओ. मैं अपने घर लौट आया लेकिन उस घटना का जिक्र मैंने किसी से भी नहीं किया.
अगले दिन सुबह वही इमाम साहब ढूंढते-2 हुए मेरे घर आये, और माफ़ी मांगते हुए बोले “बेटे, कल जो कुछ भी हुआ उसके लिए मैं बेहद शर्मिंदा हूँ, इस्लाम बदला नहीं सिखाता. मैं एक इमाम हूँ और मैंने इस्लाम को जितना समझा है उसके मुताबिक किसी काफ़िर को भी बुरा नहीं कहना चाहिए क्योंकि क्या पता वो भी कल मुसलमान बन जाये. उन्होंने कहा कि बेटे, हमारा इस्लाम कहता है कि “तुम जमीं वालों पर रहम फरमाओ, ऊपर वाला तुम पर रहमत बरसायेगा”. वो बोले कि आज मैं तुम्हारे पास इसलिए आया हूँ कि चंद लोगों की गलतियों और बदले की सोच के चलते तुम जिन्दगी भर इस्लाम और पूरी कौम को गलत समझते रहोगे. “बेटे मुसलमान गलत हो सकता है लेकिन इस्लाम गलत नहीं है.” हालाँकि ये बात आज भी एक राज ही है कि उन इमाम साहब को धमकाने वाला कौन था लेकिन मुझे बाद में मालूम हुआ कि उस मामले में मुझे झूठा फंसाने वाला मेरे ही मौहल्ले का ही एक शख्स था जिसका परिवार इस शहर को छोड़कर जा चूका है.
एक दूसरी घटना हुई थी, सन १९९२ में, जब चांदपुर में बाबरी मस्जिद के बाद तनाव हुआ था और पुरे शहर में “अल्लाह हूँ अकबर” और “हर-हर महादेव के नारे गूँज रहे थे”. उस समय मैं मौहल्ला इमामबाड़ा में अपने दो दोस्तों रंगा और हफीज के साथ इमामबाड़ा के सामने वाले मकान में बैठा खाना खा रहा था. जैसे ही नारों का शोर और फायरिंग की आवाज हुई तो हफीज ने कहा कि “मनोज निकल जा, लड़ाई शुरू हो गई”. मैंने उनसे कहा कि जब मरना ही है तो खा-पीकर ही मरूँगा. इसी बीच कुछ दाढ़ी वाले उस मकान में आ गए और कट्टर बातें शुरू कर दीं. उन्हें नहीं पता था कि मैं हिन्दू हूँ और मेरा नाम मनोज है. इसी बीच एक इमाम साहब आये और बातें करने लगे और बातों ही बातों में उन्हें ये मालूम हो गया कि मैं एक हिन्दू हूँ. इतना पता चलते ही चंद लोगों की निगाहें बदल गईं लेकिन वो इमाम साहब, रंगा से बोले कि इन्हें फौरन इनके घर तक छोड़कर आओ. इसपर वहां बैठे लोगों ने ऐतराज किया तब इमाम साहब ने कहा कि “ आज अगर इस शख्स को कुछ हो गया तो मैं जिन्दगी भर ये अफ़सोस करता रहूँगा कि मैं मुसलमान होने का फर्ज नहीं निभा पाया. हमारी पूरी कौम बदनाम हो जाएगी और मैं जिन्दगी भर अपने आपसे निगाह नहीं मिला पाउँगा, क्योंकि ये शख्स हमपर भरोसा करे बैठा है और इसका ये भरोसा कायम रहना चाहिए क्योंकि एक मुसलमान कभी गद्दार नहीं हो सकता.” उसी वक्त वो लोग मुझे साईकिल पर बैठाकर भगत परचून वालों की दुकान तक छोड़ गए जहाँ से हिन्दू इलाका शुरू होता है.
इन घटनाओं को एक जमाना बीत गया लेकिन आज भी एक-एक शब्द मुझे याद है, ऐसा लगता है कि मानों कल ही की बात हो. ये दोनों घटनाएँ बिलकुल सच्ची हैं और आज भी उन घटनाओं के कुछ चश्मदीद गवाह इस चांदपुर में मौजूद हैं.
मैं नहीं जानता कि वो दोनों इमाम साहब आज इस दुनिया में हैं भी या नहीं लेकिन ऊपर वाले से दुआ करता हूँ कि वो जहाँ कहीं भी हों खुश रहें, आबाद रहें.
आमीन.