अखिल भारतीय संत समिति जो कि हिन्दू धर्म के 127 सम्प्रदायों का प्रतिनिधित्व करती है, के महामंत्री स्वामी जितेन्द्रानन्द ने केंद्र सरकार से देश में राज्यवार अल्पसंख्यक की परिभाषा सम्प्रदायगत रूप से तय करने की मांग की है। यह मांग क्यों की गई है, इसके पीछे एक बहुत बड़ा किन्तु तार्किक कारण है।
भारत में अल्पसंख्यक शब्द की अवधारणा पुरानी है. सन 1899 में तत्कालीन ब्रिटिश जनगणना आयुक्त द्वारा कहा गया था कि भारत में सिख, जैन, बौद्ध, मुस्लिम को छोड़कर “हिन्दू” बहुसंख्यक हैं. यहीं से अल्पसंख्यकवाद और बहुसंख्यकवाद के विमर्श को बल मिलने लगा.
भारतीय संविधान की मूल अवधारणा “एक जन-एक राष्ट्र” के सिद्धांत को अपनाने की बात करती है। किंतु अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए 1992 में कांग्रेस सरकार द्वारा पहली बार अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया था। कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 23 अक्टूबर 1993 को अधिसूचना जारी कर अल्पसंख्यक समुदायों के तौर पर पांच धार्मिक समुदाय यथा मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध तथा पारसी समुदायों को अधिसूचित किया गया था।
27 जनवरी 2014 को केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून 1992 की धारा 2 के अनुच्छेद (ग) के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों का उपयोग करते हुए, जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित कर दिया।
जनगणना 2011 के आंकड़ों के मुताबिक देश में मुसलमानों की कुल जनसंख्या 17 करोड़ 22 लाख है, जो कि कुल आबादी का 14.2 फीसद है.
उत्तरप्रदेश और असम जैसे राज्यों में मुस्लिम आबादी तुलनात्मक रूप से अधिक है. उत्तरप्रदेश के 21 जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की हिस्सेदारी 20 फीसद से अधिक है. उत्तर प्रदेश के ही 6 जिले ऐसे हैं जहां मुसलमान समुदाय हिन्दू समुदाय के बराबर अथवा ज्यादा भी है. जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार मिजोरम में 2.75फीसद, लक्षदीप में 2.77 फीसद, जम्मू-कश्मीर में 28.44 फीसद, नागालैंड में 8.75 फीसद, मेघालय में 11.53 फीसद, मणिपुर में 41.39 फीसद, अरुणाचल प्रदेश में 29.04 फीसद और पंजाब में 38.4 फीसद हिन्दू हैं.
2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में 68 फीसद जनसंख्या मुसलमानों की है. अत: जनसंख्या के आधार पर इस राज्य में मुसलमान किसी भी दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक नहीं कहे जा सकते हैं. अल्पसंख्यक समुदाय को चिन्हित नहीं करने की वजह से जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यकों को दिया जाने वाला हर लाभ मुसलमानों को मिल रहा है जबकि वहां जो समुदाय वास्तविक रूप से अल्पसंख्यक है, वो उन सुविधाओं से महरूम हैं. ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि इन राज्यों में अल्पसंख्यक तय करने का पैमाना क्या है ? क्या यहां हिन्दुओं को अल्पसंख्यक समुदाय को मिलने वाला लाभ मिल रहा है ?
सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बैंच ने 2002 में कहा था कि अल्पसंख्यक की स्थिति राष्ट्रीय स्तर पर नहीं वरन राज्य स्तर पर ही तय की जानी चाहिए।
किन्तु बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभी तक किसी भी सरकार ने इस पर कोई संज्ञान नहीं लिया है।
क्या प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार इस महत्वपूर्ण समस्या का कोई सर्वमान्य किन्तु स्थायी हल निकाल पाएंगे?
*-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*