आज एक ओर ब्राह्मणों सहित पूरा सवर्ण समाज एससी/एसटी एक्ट और जातिगत आरक्षण का विरोध कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर संघ और भाजपा के सवर्ण नेता मुहं में दही जमाये बैठे हैं। बल्कि सच तो यह है कि लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों और संगठनों के सवर्ण नेता चुप्पी साधकर बैठे हैं।
कुछ लोग सवर्णों को यह समझाने का असफल प्रयास कर रहे हैं कि एससी/एसटी एक्ट और आरक्षण का विरोध केवल हिन्दू सवर्ण ही क्यों कर रहे हैं, जबकि अल्पसंख्यक और पिछड़े समुदाय का कोई भी नेता विरोध नहीं कर रहा है?
उनका यह भी कहना है कि हिन्दू धर्म और हिंदुत्व को बचाने के लिये सवर्णों को त्याग करना होगा।
परन्तु प्रश्न यह है कि केवल सवर्ण समाज ही त्याग क्यों करे?
ब्राह्मणों ने सदैव समाज का नेतृत्व किया है, किन्तु आज पूरा ब्राह्मण समाज एक हाशिये पर खड़ा कर दिया गया है। हम नेतृत्व विहीन हो गए हैं, रोजगार विहीन हो गए हैं। आर्थिक और सामाजिक रूप से बेहद कमज़ोर ब्राह्मण आज अपने भविष्य को लेकर मुहं बाए खड़ा है।
हालांकि इसके लिए काफी हद तक ब्राह्मण समाज खुद भी जिम्मेदार है। हम स्वार्थी, सत्तालोलुप और कायर हो चुके हैं। और सबसे बड़ी समस्या यह है कि छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गए हैं।
ब्राह्मण समाज इस कदर स्वार्थी हो चुका है कि अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए वह अपने ही समाज की उपेक्षा करने से भी नहीं चूक रहा। हम एक-दूसरे पर ही आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगे हैं। कोई भी पार्टी या संगठन को देख लीजिए, सबमें ब्राह्मण है। किंतु उसके बावजूद भी अपनी कोई अलग पहचान नहीं बना पाए।
मैं अक्सर टीवी चैनलों पर होने वाली डिबेट्स देखता हूँ, उनमें भाग लेने वाले प्रवक्ता 90 प्रतिशत ब्राह्मण ही होते हैं। चाहे संबित पात्रा हों, प्रियंका चतुर्वेदी हों, सुधांशु त्रिवेदी हों, अनुराग भदौरिया हों, पल्लवी शर्मा हों, अभय दुबे हों या फिर कोई और। लगभग सभी डिबेट्स में 90 प्रतिशत ब्राह्मण ही होते हैं। ये लोग अपने- अपने नम्बर बढ़ाने के लिए एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहते हैं।
प्रश्न यह है कि जब हम अपनी ही पहचान को ख़त्म करने पर तुले हैं तब किसी दूसरे को क्या दोष दिया जाए। दूसरे शब्दों में जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो परखने वाले का क्या दोष?
अपने लोगों को संसद और विधानसभा में चुनकर इसलिए भेजा जाता है कि वहां जाकर आपका प्रतिनिधि आपकी आवाज़ को सुनेगा और आपका पक्ष मजबूती के साथ रखा जाएगा। इसलिए नहीं भेजा जाता कि आप अपनों के हितों को नजरअंदाज करें, उनके विश्वास को ठेस पहुंचाएं।
कानून सर्वोपरि होता है, इसमें कोई शक नहीं है किंतु कानून सबके लिए बराबर ही होना चाहिए। जातिवाद के लिए केवल एक जाति या वर्ग विशेष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
छुआछूत वास्तव में गलत है, किन्तु बिना जांच-पड़ताल के किसी को दोषी ठहराना क्या न्याय संगत माना जा सकता है?
हमारा उद्देश्य किसी जाति या समाज का विरोध करना नहीं होना चाहिए बल्कि उन कानूनों का विरोध करना है जिनसे समाज में वैमनस्य बढ़ सकता है।
ये कानून किसने बनाये और क्यों बनाये यह बहस का विषय नहीं है, बहस का विषय यह है कि उन कानूनों को पुनर्जीवित किसने किया और क्यों किया?
भारतीय जनता पार्टी और उसके शुभचिंतकों को इस पर आत्ममंथन करना ही होगा कि क्या वास्तव में एससी/एसटी कानून में माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय को पलटने के पीछे मोदी सरकार का उद्देश्य ईमानदारी से एससी समाज को न्याय दिलाने का था अथवा केवल सत्तालोलुपता।
इसके साथ ही सभी राजनीतिक पार्टियों के सवर्ण नेताओं को भी यह सोचना होगा कि क्या वह अपने समाज के साथ सचमुच न्याय कर पा रहे हैं? जनता में आपको आज नहीं तो कल, जवाब तो देना ही होगा??
*-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*
स्वतंत्र पत्रकार एवं राजनीतिक-सामाजिक टिपण्णीकार