महात्मा गाँधी ने विभाजन के बाद की परिस्थितियों को देखने के बाद कहा था कि “पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दू और सिख हर नजरिये से भारत आ सकते हैं, अगर वे वहां निवास करना नहीं चाहते हैं. उन्हें नौकरी देना और उनके जीवन को सामान्य बनाना भारत सरकार का पहला कर्तव्य है.”
१९४७ में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में शरणार्थियों को नागरिकता देने सम्बन्धी आशय प्रस्तावित किया गया. कांग्रेस द्वारा १९४७ से २००३ तक उन समस्त शरणार्थियों को नागरिकता देने का वायदा किया जाता रहा जो दुसरे देशों में धार्मिक प्रताड़ना के शिकार होते रहे. नागरिकता संशोधन कानून नेहरु-लियाकत समझौता १९५० की भावना के भी अनूकूल है. पूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मनमोहन सिंह ने वाजपेयी सरकार में उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी से सदन में आग्रह किया था कि पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यक समुदायों के शरणार्थियों को नागरिकता दी जाये.
देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह सहित केंद्र व राज्य सरकारों के नेताओं और उच्च प्रशासनिक अफसरों की तमाम दलीलों और अपीलों के बावजूद भी हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है. ख़ुफ़िया एजेंसियों का मानना है कि इन हिंसात्मक आंदोलनों के पीछे पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया, इस्लामिक यूथ फेडरेशन, प्रतिबंधित सन्गठन सिमी, बंगाल के उपद्रवियों सहित कश्मीर के पत्थरबाज भी शामिल हैं.
इन सबके अतिरिक्त विपक्षी दलों विशेषकर कांग्रेस, वामपंथी पार्टियों और उनके चेले-चपाटों की भी विशेष भूमिका रही है. यहाँ गौरतलब बात यह है कि ये सभी महात्मा गाँधी और भीमराव अम्बेडकर के आदर्शों की बात करते नहीं थकते लेकिन इनमें से किसी ने भी देशव्यापी हिंसक घटनाओं की निंदा में एक शब्द भी नहीं बोला. और तो और इन्होंने न केवल उपद्रवियों और पत्थरबाजों की हौंसला अफजाई की बल्कि उनकी आर्थिक और कानूनी मदद देने के लिए भी हाथ आगे बढ़ाया जबकि इनमें से किसी ने भी पत्थरबाजी और आगजनी के शिकार पुलिसकर्मियों की हमदर्दी में एक शब्द भी नहीं बोला.
तुष्टीकरण की राजनीति की भी एक सीमा होती है लेकिन इस बार विपक्ष ने उन सारी सीमाओं और मर्यादाओं को लांघ दिया और देशविरोधी गतिविधियों में लिप्त आतंकी संगठनों और उनके प्यादों की खैरख्वाही में लग गए. विपक्ष ने युवाओं को अपनी सत्ता प्राप्ति की लालसा की भट्टी में झोंक दिया और उस अग्नि में अपनी राजनितिक रोटियों को सेंकने से भी नहीं चूक रहा. एक ऐसी अग्नि जो पुरे देश को स्वाहा करने में सक्षम है.
आज समूचा देश विपक्ष की इस घिनौने षडयंत्र को देख रहा है, बहुसंख्यक वर्ग भले ही बुलेट का जवाब बुलेट से न दे रहा हो लेकिन बैलेट से जरूर देगा. विपक्ष नजदीक के फायदे को भले ही देख पा रहा हो लेकिन दूर के नुकसान की शायद उसे खबर नहीं है.
इन सबके अतिरिक्त विपक्षी दलों विशेषकर कांग्रेस, वामपंथी पार्टियों और उनके चेले-चपाटों की भी विशेष भूमिका रही है. यहाँ गौरतलब बात यह है कि ये सभी महात्मा गाँधी और भीमराव अम्बेडकर के आदर्शों की बात करते नहीं थकते लेकिन इनमें से किसी ने भी देशव्यापी हिंसक घटनाओं की निंदा में एक शब्द भी नहीं बोला. और तो और इन्होंने न केवल उपद्रवियों और पत्थरबाजों की हौंसला अफजाई की बल्कि उनकी आर्थिक और कानूनी मदद देने के लिए भी हाथ आगे बढ़ाया जबकि इनमें से किसी ने भी पत्थरबाजी और आगजनी के शिकार पुलिसकर्मियों की हमदर्दी में एक शब्द भी नहीं बोला.
तुष्टीकरण की राजनीति की भी एक सीमा होती है लेकिन इस बार विपक्ष ने उन सारी सीमाओं और मर्यादाओं को लांघ दिया और देशविरोधी गतिविधियों में लिप्त आतंकी संगठनों और उनके प्यादों की खैरख्वाही में लग गए. विपक्ष ने युवाओं को अपनी सत्ता प्राप्ति की लालसा की भट्टी में झोंक दिया और उस अग्नि में अपनी राजनितिक रोटियों को सेंकने से भी नहीं चूक रहा. एक ऐसी अग्नि जो पुरे देश को स्वाहा करने में सक्षम है.
आज समूचा देश विपक्ष की इस घिनौने षडयंत्र को देख रहा है, बहुसंख्यक वर्ग भले ही बुलेट का जवाब बुलेट से न दे रहा हो लेकिन बैलेट से जरूर देगा. विपक्ष नजदीक के फायदे को भले ही देख पा रहा हो लेकिन दूर के नुकसान की शायद उसे खबर नहीं है.