महमूद प्राचा सहित कई नौटंकीबाज अक्सर टीवी डिबेट्स में अपने पीछे बाबा साहेब के पोस्टर लगाकर बैठते हैं, शाहीन बाग़ सहित तमाम CAA-NRC विरोध-प्रदर्शनों में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के पोस्टर लेकर बैठा जा रहा है। उन्हीं बाबा साहेब ने अपनी पुस्तक “पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया” नामक पुस्तक में 1920 और ’30 के दशकों में मुस्लिम नेताओं के राजनीतिक विचार औऱ व्यवहार को उजागर करने के लिए डॉ. अम्बेडकर ने अनेक महत्वपूर्ण मुस्लिम नेताओं के विचारों के उदाहरण दिए हैं. उनमें से कुल दो नेताओं के विचार यहां प्रस्तुत हैं।
“अंग्रेज धीरे-धीरे निर्बल होते जा रहे हैं और निकट भविष्य में हिंदुस्तान से चले जायेंगे। इसलिए, यदि हमने इस्लाम के सबसे बड़े शत्रु हिंदुओं से अभी से संघर्ष करके उन्हें कमज़ोर न किया, तो वे न केवल हिंदुस्तान में रामराज्य स्थापित कर देंगे, बल्कि धीरे-धीरे सारी दुनिया में फैल जाएंगे। यह हिंदुस्तान के 9 करोड़ (उस समय भारत में मुसलमानों की जनसंख्या) पर निर्भर है कि वे हिंदुओं को शक्तिशाली बनाएं या कमज़ोर। इसलिए, हर सच्चे मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वह मुस्लिम लीग में शामिल होकर संघर्ष जारी रखे, ताकि हिन्दू यहां न जम पाएं और अंग्रेजों के जाते ही हिंदुस्तान के आज़ाद होने से पहले ही हिंदुओं के साथ किसी न किसी प्रकार की समझदारी, ताक़त से या दोस्ताना अंदाज़ में क़ायम की जानी चाहिए, नहीं तो हिन्दू, जो 700 वर्षों तक मुसलमानों के ग़ुलाम रहे, मुसलमानों को अपना ग़ुलाम बना लेंगे”।
“यदि इस देश से ब्रिटिश राज हटाकर हम यहाँ स्वराज्य स्थापित करते हैं और अफगान या और कोई मुस्लिम भारत पर हमला करते हैं, तो हम मुसलमान इसका विरोध करेंगे और देश को आक्रमण से बचाने के लिए अपने सारे बेटों को कुर्बान कर देंगे। लेकिन, मैं एक बात का साफ-साफ ऐलान कर देना चाहता हूं। सुनो, मेरे हिन्दू भाइयों बहुत ध्यान सुनो! यदि आप लोग हमारे तंज़ीम आंदोलन में बाधा डालोगे और हमारे हक हमें नहीं दोगे तो हम अफगानिस्तान या दूसरी किसी मुस्लिम ताक़त से एकता कर लेंगे और इस देश में अपनी हुक़ूमत कायम कर लेंगे।”
“एक अन्य प्रश्न भारत के मुसलमानों के विषय में बारे में उठता है। यदि हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी सम्बन्ध (सन 1916 के) लखनऊ समझौते के दिनों के जैसे रहते तो यह प्रश्न उतना आवश्यक न होता, यद्यपि स्वतंत्र भारत में कभी न कभी उठता अवश्य। परन्तु ख़िलाफ़त आंदोलन (सन 1919) के बाद से बहुत कुछ बदल गया है, और ख़िलाफ़त आंदोलन को प्रोत्साहन मिलने से भारत के लिए उत्पन्न हुए अनेक दुष्परिणामों में से एक यह है कि इस्लाम में विश्वास न रखने वालों के विरुद्ध मुसलमानों की घृणा की अंदरूनी भावना पूरी निर्लज्जता के साथ नग्न रूप में उभर आई है, जैसी कि वह बीते समय में थी। हमने सक्रिय राजनीति में तलवार के बल पर बढ़ने वाले इस्लाम के प्राचीन रूप को पुनर्जीवित होते देख लिया है।”