झारखंड की राजधानी रांची की एक अदालत ने ऋचा भारती नामक एक 19 वर्षीय लड़की को एक धर्म विशेष के विरुद्ध सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने के जुर्म में सशर्त ज़मानत दी है।
इस ख़बर में कुछ भी ख़ास बात नहीं है, क्योंकि सोशल मीडिया पर एक-दुसरे के धर्म, सम्प्रदाय, मत, आस्था और विश्वास को आपत्तिजनक टिप्पणियों, वीडियो और फोटोज आदि द्वारा ठेस पहुंचाने की घटनाएं अब आम हो चुकी हैं।
लेकिन इस ख़बर में ख़ास बात है माननीय न्यायालय द्वारा ज़मानत की वह शर्त जिसमें कहा गया है कि आरोपी ऋचा भारती को इस्लाम की पवित्र पुस्तक कुरआन की पांच प्रतियां बाँटनी होंगी।
माननीय न्यायालय की इस अजीबोग़रीब शर्त को लेकर तमाम हिन्दू संगठनों सहित राजनीतिक पार्टियों और मीडिया चैनलों पर घमासान मचा हुआ है। लोगों का यह मानना है कि माननीय न्यायालय ने किस आधार पर यह शर्त रखी है, आख़िर कोई व्यक्ति इस अजीबोगरीब शर्त को क्यों स्वीकार करेगा?
हम माननीय न्यायालय के आदेशों और उसके तमाम निर्णयों का ह्रदय से सम्मान करते हैं, किन्तु हमारा प्रश्न यह है कि क्या यह एक नए विवाद का सूत्रपात नहीं है?
क्या इस प्रकार के निर्णयों से समाज में असंतोष की भावना जन्म नहीं लेगी?
यदि ऋचा भारती ने किसी धर्म विशेष के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है तो उसके विरुद्ध कड़ी से कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए, परन्तु किसी पवित्र ग्रन्थ की प्रतियां बांटने का फैसला सुनाकर माननीय न्यायालय क्या सिद्ध करना चाहता है? कल को यदि किसी अन्य मामले में कोई अन्य न्यायालय यह फैसला दे कि आरोपी को कम से कम 5 लोगों को कलमा पढ़वाना होगा, तो क्या यह उचित फैसला होगा?
यहां यह प्रश्न भी उठना स्वाभाविक है कि कल यदि कोई सम्प्रदाय विशेष का व्यक्ति हिन्दू धर्म पर कोई आपत्तिजनक टिप्पणी करता है तो क्या उसको हिन्दू धर्म के पवित्र ग्रँथों यथा श्री रामायण, श्रीमद्भागवत, महान वेद अथवा श्री गीता की प्रतियां बांटने का आदेश देने की प्रक्रिया को अपनाया जाएगा? क्या वह आरोपी इस प्रकार के आदेशों का पालन करेगा? क्या उसके धर्मगुरु उसे कोई फतवा नहीं देंगे?
ये और इस जैसे तमाम सवाल हैं जिनका जवाब शायद किसी के पास न हो।
किसी भी एक ऐसी नई प्रथा की शुरुआत करना जो कि स्वयं में विवादित हो कदापि उचित नहीं जान पड़ता।
उन्नाव और बागपत में समुदाय विशेष के कुछ लोगों ने हिन्दू संगठनों पर मारपीट का आरोप लगाते हुए कहा कि उनकी दाढ़ी खींची गई और जय श्रीराम के नारे लगाने हेतु बाध्य किया गया। जबकि पुलिस जांच में केवल मारपीट की घटना को ही सही ठहराया गया। मतलब जय श्रीराम के नारे लगवाने और दाढ़ी खींचने की बात सिरे से झूठ निकली।
अब प्रश्न यह है कि क्या किसी भी माननीय न्यायालय द्वारा उन झूठे लोगों को श्री रामायण की प्रतियां बांटने का आदेश दिया जाएगा, जिनके झूठ से एक बड़ा हादसा हो सकता था, और निर्दोष लोगों को अपने जानमाल से हाथ धोना पड़ जाता।
एक कहावत है कि ताली दोनों हाथों से बजती है। *तुम गीता बांटों, मैं कुरआन बांटूं, तुम तिलक लगाओ मैं टोपी पहनू। तभी साम्प्रदायिक सद्भावना, एकता और इस देश की अखंडता अक्षुण्ण रह सकती है।*
सद्भावना एक श्रद्धा है जिसे ह्रदय की गहराइयों से स्वीकार किया जाता है, सद्भावना को किसी पर थोपा नहीं जा सकता है।