जिंदगी सम्भोग की तरह है, क्षणभंगुर होती है परन्तु असीम आनन्द देती है। सम्भोग भी तो जीवन ही देता है। आवश्यकता केवल खुलकर जीने की है, उल्लास की है। सम्भोग और जीवन दोनों ही आशा देते हैं, इनमें निराशा के लिए कोई स्थान नहीं है। निराश व्यक्ति संभोग क्रिया को सफलतापूर्वक संपन्न नहीं कर सकता ठीक वैसे ही निराश और उदास मन भी जीवन को पूर्ण नहीं करने देता। वास्तव में जहां आशा है, शांति है, समर्पण है, उत्तेजना है, उल्लास है वहीं संभोग सम्भव है और यही नियम जीवन पर भी लागू होता है।
जीना प्रत्येक व्यक्ति चाहता है परन्तु उसके प्रति समर्पित तो कोई विरला ही हो पाता है। संभोग की इच्छा तो नपुंसक को भी होती है, परन्तु वह समर्थ नहीं होता, इसलिए उसे समर्थन भी नहीं मिल पाता। जीवन को जीने के लिए जीव की आवश्यकता होती है, क्योंकि जीव ही तो जीवन देता है, संभोग भी जीव से ही सम्भव है, निर्जीव कभी संभोग कर ही नहीं सकता और न ही किसी निर्जीव के साथ संभोग सम्भव है।
हमारा साथी, हमारा पार्टनर, हमारा सखा यदि जीवित, आशावादी है, प्रफुल्लित है तभी संभोग सम्भव है, ठीक उसी प्रकार जीवन में यदि आपके मित्र आशावादी हैं, सहयोगी हैं, शांत हैं तभी तो आप जीवन की नैया को आगे बढ़ा सकते हैं, पार लगा सकते हैं।
हम जीना नहीं चाहते क्योंकि हम निराशावादी हो गए हैं, हम अहंकारी हो गए हैं, हम अशांत हैं, हम उदास हैं, हमारे अंदर कुछ टूटने सा लगा है, हम निश्छल नहीं हैं, हम अति उत्साही हैं, हम पाना नहीं छीनना चाहते हैं और यही हमें व्यथित करता है, हम खोना नहीं चाहते क्योंकि हम खोना ही नहीं चाहते।
संभोग और जीवन दोनों ही सिर्फ पाना ही नहीं सिखाते इसमें खोना भी पड़ता है। आप खो नहीं सकते तो आप पा कैसे सकते हो, पाने के लिए कुछ तो खोना पड़ेगा।
सम्भोग में भी तो कुछ खोकर ही आनन्द पाते हो, फिर जीवन का आनन्द बिना कुछ खोए कैसे सम्भव है, सोचो, आत्मचिंतन करो, करना ही पड़ेगा, यदि जीना चाहते हो तो इतना तो करना ही है।
*-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*
9058118317