कल शाम मेरे निवास पर जब हिंदूवादी नेता अनिल पांडेय मेरे हालचाल पूछने आये, तब उनसे करीब दो घण्टे विभिन्न मुद्दों पर चर्चा हुई। जिसमें से एक विषय यह भी रहा।
वास्तव में यह एक बेहद गम्भीर और संवेदनशील मुद्दा है कि क्या एक मुस्लिम राष्ट्रवादी नहीं हो सकता? मेरा मानना है कि राष्ट्रवाद किसी धर्म विशेष की धरोहर नहीं है, बल्कि राष्ट्र उस प्रत्येक व्यक्ति का है जो इस राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता से जुड़ा है और उनको अपनाता रहा है। राष्ट्र किसी राजनीतिक पार्टी या संगठन का घोषणा पत्र नहीं है। राष्ट्र तो एक परम्परा है, जिसे वह प्रत्येक व्यक्ति अपनाता है जिसका सम्बन्ध राष्ट्र से है, राष्ट्रीयता से है।
इस देश का मुसलमान कहीं न कहीं इस राष्ट्र की परंपराओं और आदर्शों को निभाता रहा है।
इस राष्ट्र की पावन भूमि पर ही तो अबुल कलाम आज़ाद, अल्लाहमा इक़बाल, वीर अब्दुल हमीद और एपीजे अब्दुल कलाम जैसी मुस्लिम शख्सियतों ने जन्म लिया है।
आज जिस न्यूकलर ताक़त पर हम गर्व कर रहे हैं, इस परमाणु शक्ति के जनक एपीजे अब्दुल कलाम भी तो एक मुस्लिम ही थे। यह उनका राष्ट्रप्रेम ही तो था जिसके दम पर हम सम्पूर्ण विश्व के समक्ष सर उठाकर और सीना तानकर खड़े हैं।
अगर हिंदुस्तान का हिन्दू पाकिस्तान में न रहा होता तब पाकिस्तान में हिन्दू 1 प्रतिशत भी नहीं होता। जो मुसलमान हिंदुस्तान में रहता है, वह हिंदुस्तानी नहीं है, तो और क्या है?
सन 1947 के बंटवारे में जो मुस्लिम समुदाय के लोग इस देश में रुक गए वह किसी और कारण से नहीं बल्कि केवल राष्ट्रप्रेम के चलते हुए ही यहां रह गए थे।
आज का मुसलमान कल का हिन्दू ही था, हमने कभी इस विषय पर चिंतन और मनन करने का प्रयास ही नहीं किया कि आखिर किस कारण से कल का हिन्दू आज का मुसलमान बन गया। हम बस उनसे अलग होते गए, और इतने अलग हो गए कि हमारे बीच नफरत की एक दीवार सी खड़ी हो गई।
इस दीवार को गिराने का प्रयास किसी भी राजनेता या राजनीतिक दल ने नहीं किया, किसी सरकार ने भी नहीं किया। बल्कि प्रत्येक व्यक्ति ने इस दीवार को ऊंचा और ऊंचा करने का ही प्रयास किया। अकेले भाजपा को इसके लिए दोष नहीं दिया जा सकता, किन्तु भाजपा ने इस दीवार को बेहद मज़बूत करने का प्रयास जरूर किया है।
*”छद्म राष्ट्रवाद” और “चुनावी देशभक्ति” ने स्वयंभू देशभक्तों के संगठन बना दिये हैं जो लोगों को देशभक्ति का प्रमाण-पत्र बांटने लगे हैं। कौन देशभक्त है और कौन देशद्रोही? इसका फैसला करने वाले संगठन आज कुकुरमुत्ते की तरह हर जगह उग रहे हैं।*
इस विषय पर एक देशव्यापी बहस होनी ही चाहिए, मुस्लिम संगठनों और पार्टियों को चाहिए कि वह खुलकर सामने आएं और यह स्पष्ट करने का प्रयास करें कि इस देश की मिट्टी में उनके पूर्वजों के बलिदान की भी खुशबू है।
संघ या भाजपा कोई हौवा नहीं हैं, सँघ तो स्वयं इस बात को स्वीकार चुका है कि इस देश को मुसलमानों की भी उतनी ही जरूरत है जितनी कि हिंदुत्व की।
*-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*