आज यह देश पूरी तरह से दो विचारधाराओं में बंटा हुआ है. एक विचारधारा उन लोगों की है जिनके लिए देश और देश का संविधान पहले है, और दूसरी विचारधारा उन लोगों की है जिनके लिए उनका मज़हब और उनकी क़ौम सर्वोपरि है. उनको देश और संविधान से कोई सरोकार नहीं है.
“भारत के मुसलमान भारत की आजादी का असंदिग्ध रूप से समर्थन करते हैं. पर यह आजादी पूरे भारत की होनी चाहिए, न कि केवल एक वर्ग की. यदि हिन्दू आजाद हो जाएँ और उसके बाद मुसलमान उनके गुलाम होकर रह जाएँ, तो यह ऐसी आजादी नहीं जिसके लिए मुसलमानों को संघर्ष करने के लिए कहा जाये. किसी भी अर्थ में मुसलमान स्वयं में एक राष्ट्र हैं. यदि भारत की (आपसी संबंधों की) समस्या को मात्र दो समुदायों के बीच की ही समस्या माना गया तो यह हल नहीं होगी। यह दो राष्ट्रों के बीच की समस्या है और इससे इसी प्रकार निपटा जाना चाहिए। हिन्दू और मुसलमान कभी एक साझी राष्ट्रीयता विकसित कर पाएंगे, यह एक कोरा सपना है. हिन्दुओं और मुसलमानों के धार्मिक तत्वज्ञान, सामाजिक रीति-रिवाज़ और साहित्य अलग-अलग हैं. उनमें न आपस में शादी-ब्याह होते हैं, न आपसी खानपान। वास्तव में, उनका संबंध दो अलग-अलग सभ्यताओं से है जो एक-दुसरे से बिलकुल विपरीत विचारों और धारणाओं पर आधारित हैं. यह स्पष्ट है कि हिन्दू और मुस्लिम अपनी प्रेरणाएं इतिहास के अलग-अलग स्रोतों से प्राप्त करते हैं. इनके महाकाव्य अलग हैं, वीर पुरुष अलग हैं, गाथाएं अलग हैं. ज्यादातर एक का वीर पुरुष दूसरे का शत्रु है, और यही बात उनकी जय-पराजयों में भी है. ऐसी दो अलग-अलग कौमों को एक राज्य के नीचे जबरदस्ती बैठा देने से, जहाँ कि एक तबक़ा बहुसंख्यक है और दूसरा अल्पसंख्यक, केवल कड़वाहट ही बढ़ेगी और ऐसे राज्य का शासन चलाने के लिए जो भी ताना-बाना तैयार किया जायेगा, वह आख़िरकार नष्ट ही हो जायेगा। “राष्ट्र” की किसी भी परिभाषा से मुसलमान एक अलग ही राष्ट्र कहलायेंगे, और उनकी अपनी सरज़मीं, अपना इलाक़ा और अपना राज्य होना ही चाहिए। अतः मुस्लिम-भारत कोई ऐसा संविधान स्वीकार नहीं करेगा जिसका एकमात्र परिणाम बहुसंख्यकों का स्थाई शासन होने वाला हो.”
स्रोत : (स्ट्रगल फॉर पाकिस्तान, आई एच कुरैशी, कराची, १९८७, पृष्ठ १२८-२९)
कल पढ़िए दूसरा भाग
संकलन- मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”