इस देश में दो तरह के आयोग गठित होना परम आवश्यक हैं, पहला “सवर्ण आयोग” और दूसरा “पुरुष आयोग”। सवर्ण आयोग अर्थात जहां सवर्ण समाज की समस्याओं और शिकायतों को गम्भीरता पूर्वक सुना और समझा जा सके। सवर्ण समाज केवल ब्राह्मण, वैश्य और राजपूत ही नहीं है बल्कि शेख़, सैयद, मुगल और पठान भी सवर्णों की श्रेणी में ही आते हैं। इस आयोग को यह भी तय करने का अधिकार होगा कि सवर्ण समाज को कितना प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए अथवा नहीं मिलना चाहिए। एससी-एसटी एक्ट की निष्पक्ष जांच में सवर्ण आयोग की भी महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए।
इसके अतिरिक्त दूसरा “पुरुष आयोग” गठित होना चाहिये जो कि भारतीय पुरुष समाज की समस्याओं, शिकायतों और उनके बेहतर विकास के लिए हरसम्भव प्रयास कर सके।
हमारा मानना है कि इस देश में सबसे अधिक यदि कोई मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से प्रताड़ित होता है तो वह पुरुष समाज ही है। इसका सबसे ताज़ातरीन उदाहरण है सोशल मीडिया पर सबसे अधिक ट्रेंड करने वाला हैशटैग me too. जिसमें देश-विदेश की हजारों-लाखों महिलाओं ने अपने-अपने क्षेत्र के सूरमाओं पर सेक्सुअल हैरसमेंट के आरोप लगाए। एक महिला अपने कैरियर को बुलंदियों पर ले जाने या नौकरी में प्रमोशन पाने अथवा राजनीति/फ़िल्म इत्यादि में बड़ा ब्रेक पाने के लिए किसी पुरुष को अपना “शिकार” बनाती है, उसको जरिया बनाती है और अपना उल्लू सीधा होने अथवा न होने पर वह उसी पुरुष को आरोपी बना देती है। उसपर सेक्सुअल हैरसमेंट का घिनौना आरोप लगाकर उसको समाज में बदनाम करके खुद को “बेचारी” और “पीड़िता” बताने का ढोंग रचती है। इसमें महिला आयोग और उस जैसी अन्य अनेक संस्थाएं उस महिला की ख़ूब मदद करती हैं। और तो और आम जनता से लेकर संसद तक और माननीय न्यायपालिका में भी महिला का पक्ष पूरी सहानुभुति के साथ सुना जाता है। जबकि पुरुष बेचारा अपने परिवारजनों के साथ-साथ पूरे समाज की न केवल लानत-मनालत झेलता है बल्कि अपने “पुरुष समाज” से भी उसे कोई सहयोग नहीं मिलता। उसे बहुत घृणित दृष्टि से देखा जाता है और इसके लिए समय-समय पर उसे अपमानित भी होना पड़ता है।
यह तमाम उन निर्दोष और निरपराध पुरुषों की कहानी है जिनपर बलात्कार के झूठे और मनघड़ंत आरोप लगाकर उनका मानसिक और आर्थिक शोषण किया जाता है।
क्या उन महिलाओं को कभी कोई सज़ा मिल पाती है जो इस प्रकार के घिनौने षडयंत्र में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होती हैं? यह बेहद पेचीदा किंतु स्वभाविक प्रश्न है, और जिसका उत्तर शायद ही किसी के पास है। क्या कोई महिला किसी पुरुष का सेक्सुअल हेरेसमेन्ट नहीं कर सकती? क्या महिलाओं को ढाल बनाकर अपराध नहीं किये जाते?
अभी हाल ही में अपने प्यार की ख़ातिर परिवार के ही सात सदस्यों को मौत के घाट उतारने की गुनहगार अमरोहा की शबनम की फांसी की सज़ा के मामले में, शबनम की फांसी की सज़ा को मानवीय आधार पर उम्रकैद में बदले जाने की मांग को लेकर दाखिल इलाहाबाद हाईकोर्ट की महिला वकील सहर नक़वी की अर्जी में शबनम की फांसी को उम्रकैद में बदले जाने की मांग को लेकर जो दलीलें दी गईं हैं, उनमे सबसे प्रमुख यह है कि “आज़ाद भारत में आज तक किसी भी महिला को फांसी नहीं हुई है. सहर नकवी ने गवर्नर को भेजी गई अर्जी में लिखा है कि अगर शबनम को सूली पर लटकाया जाता है तो समूची दुनिया में भारत और यहाँ की महिलाओं की छवि खराब होगी, क्योंकि देश की महिलाओं को देवी की तरह पूजने व सम्मान देने की पुरानी परंपरा है।”
विद्वान वकील साहिबा की इस खोखली और बेबुनियाद दलीलों का एकमात्र मकसद एक ऐसी महिला को बचाना है जिसने 14 अप्रैल 2008 को अपने ही परिवार के 6 लोगों की सोते समय कुल्हाड़ी से गर्दन काटकर हत्या करवा दी थी, और अपने 11 महीने के मासूम भतीजे का गला अपने हाथों से दबाकर मार डाला था। मरने वालों का कसूर मात्र इतना था कि वह शबनम और उसके आशिक सलीम के प्यार में रोड़ा बन गए थे। यहां ग़ौरतलब है कि शबनम इंग्लिश और भूगोल विषय से पोस्ट ग्रेजुएट थी।
ऐसी क्रूर और नृशंस हत्यारिन को क्या देवी मानकर पूजा जाना चाहिए, यदि हाँ, तो फिर ईशरत जहां का क्या कसूर था? श्रीराम ने सुपर्णखा के नाक-कान क्यों कटवा दिए थे? उसकी पूजा क्यों नहीं की थी? पूजा माता सीता की होती है, पूजा उस नारी की होती है जो त्याग, ममता और करुणा की प्रतिमूर्ति होती है।
क्या किसी नृशंस हत्यारिन को फांसी पर चढ़ा देने से भारत की छवि खराब हो सकती है? इसे कुतर्क ही कहा जा सकता है।
बहरहाल, सरकार को इस सब पर बेहद गम्भीरता से विचार करना होगा, औऱ सवर्ण आयोग के साथ-साथ पुरूष आयोग का भी गठन निहायत आवश्यक है ताकि निर्दोष और निरपराध पुरुषों को न्याय मिल सके।
🖋️ *मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*
समाचार सम्पादक- उगता भारत हिंदी समाचार-
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*विशेष नोट- उपरोक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। उगता भारत समाचार पत्र के सम्पादक मंडल का उनसे सहमत होना न होना आवश्यक नहीं है। हमारा उद्देश्य जानबूझकर किसी की धार्मिक-जातिगत अथवा व्यक्तिगत आस्था एवं विश्वास को ठेस पहुंचाने नहीं है। यदि जाने-अनजाने ऐसा होता है तो उसके लिए हम करबद्ध होकर क्षमा प्रार्थी हैं।