मीडिया सूत्रों से मिली खबरों के अनुसार “एक राष्ट्र-एक चुनाव” के मुद्दे पर कांग्रेस का कहना है कि हो सकता है कि कल “एक राष्ट्र-एक धर्म” की बात हो, फिर “एक राष्ट्र-एक पहनावे” की बात होने लगे। इसे सुनकर एक कहावत याद आती है छाज बोले सो बोले छलनी बोले जिसमें 72 छेद.
*सेक्युरिज्म के नाम पर “एक सम्प्रदाय विशेष” के तुष्टीकरण की “साम्प्रदायिक राजनीति” करने वाली कांग्रेस पार्टी* को ख़्वाब में भी धर्म और जातिवाद की राजनीति ही दिखाई देती है।
करीब पांच साल पहले कांग्रेस नेता ए के एंटनी ने अपनी एक रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा था कि कांग्रेस पार्टी की हार इस धारणा की वजह से हुई कि कांग्रेस का झुकाव अल्पसंख्यक वर्ग की ओर अधिक है औऱ इसीलिए बहुसंख्यक वर्ग का झुकाव भाजपा की ओर होता चला गया, जिसका खामियाजा कांग्रेस को हार के रूप में भुगतना पड़ा। दूसरे शब्दों में कहें तो *कांग्रेस ने जहाँ एक ओर “छद्म सेक्युलरिज्म” के नाम पर सम्प्रदाय विशेष के तुष्टीकरण की राजनीति की, वहीं दूसरी ओर “छद्म सोशलिज्म” के नाम पर जातिवाद की राजनीति को पुष्पित-पल्लवित किया गया जिसे “सामाजिक न्याय” का छद्म नाम भी दिया गया।*
कांग्रेस सरकारों ने हिन्दू और हिंदुत्व को न केवल एक ओर हाशिये पर डाले रखा बल्कि दूसरी ओर कांग्रेसी नेताओं ने सभी सीमाओं को लांघते हुए हिंदुत्व को आतंकी धर्म बताने का भी हरसम्भव प्रयास किया जिसका जीता जागता उदाहरण साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के रूप में सबके सामने है।
अपने आपको सम्प्रदाय विशेष का मसीहा साबित करने की होड़ में कांग्रेस के नेताओं ने अपनी ही संस्कृति औऱ सभ्यता की घोर उपेक्षा की, अकबर को महान और राणा प्रताप की उपेक्षा करने वाले *कांग्रेसी आज भले ही गले में जनेऊ डालकर तिलक लगाए “पोंगा पण्डित” बने मंदिर-मंदिर माथा टेकते घूम रहे हों किन्तु इस देश की 80 प्रतिशत जनता ये कैसे भूल सकती है कि इसी कांग्रेस ने हिंदुओं की आस्था के प्रतीक श्रीराम के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया था।*
कांग्रेस सत्ता को तो खो चुकी है लेकिन विपक्ष की जिम्मेदारी को भी ठीक ढंग से नहीं निभा पा रही है, एक स्वस्थ लोकतंत्र में यह जरूरी हो कि सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्षी पार्टियां भी अपना दायित्व निभाएं और देशहित और जनहित फैसलों में सत्तापक्ष को अपना सहयोग दें, और एक स्वस्थ वातावरण में होने वाली खुली चर्चाओं में भी अपना योगदान दें। कांग्रेस ने इस देश में लगभग 70 वर्षों तक सत्ता संभाली है और आज भी वह सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी होने का गौरव रखती है, इसलिए अन्य छोटे-मोटे दलों की अपेक्षा कांग्रेस से अधिक जिम्मेदारी की आशा की जाती है। लेकिन अभी तक जिस प्रकार का रवैया कांग्रेस दिखा रही है उसे ग़ैर जिम्मेदाराना रवैया ही कहा जायेगा।
सच तो यह है कि जिस प्रकार कबूतर के पास बिल्ली के आने पर कबूतर अपनी आंखें मूंद लेता है और सोचता है कि वह बिल्ली से बच जाएगा। ठीक उसी प्रकार से कांग्रेस के शीर्ष नेतागण भी सच्चाई से अपनी आंखें मूंदे बैठे हैं।
*-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*