कम से कम 50 लोगों की हत्या की जिम्मेदार बताई जा रही एक कथित “मासूम और निर्दोष आतंकी” सफूरा जरगर को ज़मानत मिल ही गई। मिलती भी क्यों नहीं आख़िर पप्पू-गैंग, जिहादी-गैंग, माओवादी गैंग औऱ “छद्म-धर्मनिरपेक्ष गैंग” लगतार छाती पीट-पीटकर कह रहा था कि सफूरा जरगर गर्भवती है, उसे छोड़ दिया जाए। आतंकियों की मौत पर विधवा विलाप करने वालों की आंखों से आंसू नहीं रुक रहे थे, याकूब मेमन जैसे क्रूर और हिंसक अपराधियों के लिए रातोंरात न्यायालय खुलवाने वाले भला सफूरा जरगर को रिहा कराने के लिए दिनरात क्यों नहीं एक करते। करना ही था और उन्होंने किया भी।
आज टुकड़े-टुकड़े गैंग आतिशबाजियां छोड़ रहा होगा और ट्विटर पर अपनी खुशियां बांट रहा होगा।
लेकिन आज उन तमाम लोगों की आत्मा कलप रही होगी, उस आईबी अफ़सर की मर्मान्तक चीखें फ़िज़ाओं में आज भी गूंज रही हैं, उन हजारों-लाखों लोगों के घरों में आज मातम छाया हुआ है जिन्होंने किसी अपने को खोया है, जिनका कोई अपना अब कभी नहीं लौट पायेगा।
हम अपने ही देश में कितने बेबस और मजबूर हैं, हमारी न्यायप्रणाली आज भी झूठे सबूतों और गवाहों की जंजीरों में जकड़ी हुई है। महंगी फीस लेकर झूठ को सच बनाने वाले मकड़ों के मायाजाल में उलझकर रह गया है हमारा संविधान, हमारा न्याय और सत्यमेव जयते का आदर्श वाक्य।
कानून की आंखों पर पट्टी बंधी हुई है और हमारे सिस्टम के कानों में रुई ठुंसी हुई है, ऐसे में आप किसी के लिए न्याय की आशा क्यों करते हैं, प्रतीक्षा कीजिये, अनन्त प्रतीक्षा। क्योंकि कांग्रेस, वामपंथ और जिहादियों की यह जमात आपको न्यायालय और न्याय तक पहुंचने से हमेशा ही रोकती रहेगी।
*- मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”*