एक तरफ परम् पूज्य संत श्री योगी आदित्यनाथ और दूसरी ओर श्री उद्धव ठाकरे। दोनों ही के संस्कार सनातनी हैं, दोनों का ही पालन-पोषण सनातन संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं के बीच हुआ है, दोनों की ही आस्था भारतीय जीवन मूल्यों में रही है। दोनों ही अपने-अपने राज्यों के मुखिया हैं, परन्तु अंतर केवल संगति का है जिसके कारण एक का आचरण शुद्ध और सात्विक हो गया और दूसरा धृष्टराष्ट्र की तरह सत्ता के अहंकार और स्वार्थ सिद्धि के वशीभूत होकर अपने राज्य में निरीह और निर्दोष सनातन संस्कृति का चीरहरण होते हुए समझकर भी मुहं में दही जमाये बैठा है। दो साधु-सन्तों की मर्मान्तक चीखें, उनका करुण-क्रंदन, प्राणों को बचाने के लिए उन साधुओं की पुकार भी इस धृष्टराष्ट्र कि अंतरात्मा को झकझोर नहीं पाए।
एक व्यक्ति जिसके पिता ने सनातन संस्कृति और परंपराओं को जीवित रखने हेतु जीवनपर्यंत घोर संघर्ष किया उसका पुत्र सत्तालोलुप और स्वार्थ की राजनीति में दुष्टों की संगति कर बैठा।
क्या वह अपने पिता के संस्कारों को भूल गया है? क्या उसकी अंतरात्मा जरा भी नहीं कराहती? दुर्योधन, शकुनि और दुःशासन से घिरा यह धृष्टराष्ट्र कब अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को सुनेगा?
स्मरण रहे कि इतिहास ने कभी किसी का पक्ष नहीं लिया है, सदैव दुष्ट को उसकी दुष्टता और सज्जन को उसकी सज्जनता के लिए ही जाना है।
माननीय मुख्यमंत्री श्री उद्धव ठाकरे जान लीजिये कि मृत्य निश्चित है और मृत्यु पश्चात अपने पूर्वजों को आपको अपना मुहं भी दिखाना होगा। आप कैसे अपना मुहं दिखाएंगे, इस प्रश्न का उत्तर मैं आप पर छोड़ता हूँ, आप स्वयं निर्णय लीजिये।
-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”