एक फ़िल्म थी “सरकार”, इस फ़िल्म में एक डायलॉग था, “आदमी को मारने से पहले उसकी सोच को मारना चाहिए”. अमेरिका दुनिया के सबसे खूंखार और वहशी आतंकी अबू बकर अल बगदादी को सीरिया में मार गिराए जानेे का दावा किया है। इससे पहले अमेरिका ने अपने समय के सबसे खूंखार आतंकी ओसामा बिन लादेेन को भी मार गिरानेे के सबूत दिए थे।
लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या इस सबके बावजूद यह दावा किया जा सकता है कि दुनिया से आतंकवाद और आतंकियों का पूरी तरह से खात्मा हो गया है? क्या यह मान लिया जाए कि इस्लामिक स्टेट के सरगना के मरने का बाद इस्लामिक स्टेट का सपना देखने वालों का भी अंत हो गया है?
इन सवालों का जवाब अभी किसी के पास नहीं है, सच तो यह है कि अमेरिका खुद दोहरी नीति अपना रहा है। जहां वह एक तरफ बगदादी और लादेन को मारने की मुहिम चलाता है तो दूसरी तरफ़ तालिबान के सरगनाओं से समझौता करने के लिए जीभ लपलपाता है। एक तरफ़ इस्लामिक स्टेट की सोच को ख़त्म करने पर जोर देता है तो वहीं दूसरी ओर तालिबानी सोच को बढ़ावा देता है।
अमेरिका की यह दोहरी नीति हमेशा से रही है और इसीलिए वह नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाता है तो इमरान से गले मिलता है। वह कश्मीर पर भी लगातार दोहरी नीति अपनाए हुए है। ओसामा और बगदादी सही मायने में अमेरिका के लिए सरदर्द बन गए थे। वह दोनों अमेरिका की दादागिरी को खुलेआम चुनौती दे रहे थे, इसलिए उन्हें मारना अमेरिका के लिये जरूरी हो गया था।
लेकिन आतंकी सोच और इस्लामिक स्टेट की विचारधारा को अमेरिका अभी तक नहीं खत्म कर पाया है और न ही उसको ख़त्म करने के लिए वह प्रयत्नशील है।
भारत मेें भी बदरूद्दीन अजमल जैसी विचारधारा के लोग विषवमन करते घूूूम रहे हैैं, जो इस्लाम की आड़ में अपनी विनाशकारी सोच को बढ़ावा देेनेे में लगे हैैं। यह वही लोग हैैं जो इस्लामिक स्टेट और जिहाद की आड़ में विकास को विनाश में बदलना चाहते हैं। यह वही लोग हैं जो ज़ुबानी आतंकवाद को बढ़ावा देते हैं।
भारत की बढ़ती जनसंख्या निश्चित रूप से विकास में सबसे बड़ी बाधा है लेकिन इसको जानने और समझने के बावजूद इस्लामिक स्टेट की विचारधारा वाले लोग जनसंख्या नियंत्रण की नीति का घोर विरोध करते रहे हैं।
क्या ऐसी विचारधारा पर अंकुश लगाने में कोई “अमेरिका” कभी कामयाब हो पायेगा? शायद इस सवाल का जवाब खुद अमेरिका के पास भी नहीं है।