पिछले माह मैं लखनऊ में गया था. वहां एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी महोदय से मेरी काफी देर बातचीत हुई. बातचीत के दौरान उन्होंने एक बात बहुत अच्छी कही थी कि “आम जनता ये समझती है कि पुलिस अपराध को खत्म करने के लिए बनी है जबकि सच तो ये है कि अपराध हमारे समाज का ही एक हिस्सा है, जब तक समाज है तब तक अपराध भी होते रहेंगे. पुलिस विभाग का काम अपराध की जांच कर दोषी को पकड़कर न्यायालय के हवाले करने का है, ताकिउसको उचित सजा मिल सके. पुलिस का नैतिक कर्तव्य अपराध को बढ़ने से रोकने का प्रयास करना है, लेकिन दुनिया की कोई भी पुलिस अपराध को समूल नष्ट नहीं कर सकती. अपराध तो तभी से प्रारम्भ हो गये थे जबसे समाज का निर्माण हुआ था. जैसे-जैसे समाज बढ़ता गया वैसे-वैसे अपराध भी बढ़ते गये, अपराध की तकनीक भी उन्नत होती गई.”
मैं इस विषय में उन पुलिस अधिकारी महोदय से पूर्णरूप से सहमत हूँ. वास्तव में अपराध हमारे समाज का ही एक हिस्सा हैं. मैंने “अपराधशास्त्र” नामक एक पुस्तक जिसके लेखक डॉ. बसंती लाल बाबेल (एम.ए, एल.एल.एम, पीएचडी, डीएलएल, डीसीएल) हैं, में पढ़ा था कि- मनुष्य एक सामजिक प्राणी है. वह समाज में जन्म लेता है, पलता है और मर जाता है. समाज से अलग उसका अस्तित्व नहीं हो सकता. जैसा समाज होता है, वैसा ही अपराध होता है. दोनों में एक-दुसरे का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है. समाज एवं सामाजिक परिस्थितयां ही व्यक्ति का निर्माण करती हैं, तो यही व्यक्ति के पतन का कारण भी होती हैं. यदि समाज में मानव मूल्यों की कदर होती है तो व्यक्ति अपराध की ओर उन्मुख होता है. जिस समाज में व्यक्ति के व्यक्तित्व की कदर नहीं होकर उसकी आर्थिक स्थिति, संपन्नता, पद अथवा शक्ति की पूछ होती है, वहां व्यक्ति में निराशा एवं हीनभावना का प्रादुर्भाव होता है, और यही निराशा एवं हीनभावना आगे चलकर अपराध बनती है.
अगर मैं इसे अपने शब्दों में कहूँ तो “कोई भी व्यक्ति जन्मजात अपराधी नहीं होता, किन्तु देशकाल, परिस्थितियों और हीनभावना के वशीभूत होकर ही व्यक्ति अपराधी बन जाता है. यानि किसी व्यक्ति को अपराधी बनाने में उसके समाज का एक बड़ा हाथ होता है.” पुलिस तो स्वयं समाज का एक हिस्सा है, अतः इस सब में उसकी भी एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है. पुलिस अपराध को नियंत्रित तो कर सकती है किन्तु उसको जड़ से समाप्त नहीं कर सकती.
अपराध के लिए केवल पुलिस को दोषी ठहरा देना कदापि उचित नहीं जान पड़ता. बल्कि उसके लिए हम सब भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में दोषी हैं. आज के दौर में राजनीतिक विद्वेष, सत्ता का लालच, सोशल मीडिया का दुरूपयोग, प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का कहीं-कहीं गैर-जिम्मेदाराना रवैया, जातिवाद, सम्प्रदायवाद और स्वस्थ संवाद का न होना, और उन्नत तकनीक भी कहीं न कहीं इसके लिए दोषी हैं. हम दूसरों पर दोषारोपण करने से कभी नहीं चूकते, किन्तु अपने अंदर झाँकने का साहस कभी नहीं करते हैं, जो कि वास्तव में बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है.
केवल राज्य/केंद्र सरकारों और पुलिस-प्रशासन पर दोषारोपण करने से अपराध समाप्त नहीं किये जा सकते, उसके लिए हम सबको मिलजुलकर प्रयास करने होंगे. हमें अपने अंदर झाँकने का साहस जुटाना ही होगा.
– मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”