पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना से जब एक सवाल किया गया कि पाकिस्तान की नींव कब पड़ी? जिन्ना ने जवाब दिया “जब देश का पहला व्यक्ति मुसलमान बना।“ जिन्ना की बात सोलह आने सही थी। इस देश का विभाजन तब हुआ जब देश के एक हिस्से में इतने बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुए कि मुसलमान बहुसंख्यक हो गए तब अलग मुस्लिम देश की मांग उठने लगी। आज यह बात बार-बार याद आती है क्योंकि देश की राजनीति धर्मांतरण और घर वापसी को लेकर गर्माई हुई है। आगरा में धर्म जागरण मंच ने करीब 90 लोगों की जब घर वापसी कराई तो इस देश की सेक्युलर जमात ने इस तरह से आसमान सिर पर उठा लिया मानो अनर्थ हो गया हो, इस देश के सेक्युलरिज्म पर आंच आ गई हो। हमारी मीडिया दिन-रात चीख-चीख कर बताती रही कि इसी तरह संघ परिवार का घर वापसी का अभियान चलता रहा, तो देश में भयंकर सांप्रदायिक तनाव पैदा हो जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चुनाव में किया गया विकास का वायदा खतरे में पड़ जाएगा। हमारे हिन्दूद्रोही विपक्ष ने तो इस मुद्दे पर राज्यसभा चलने ही नहीं दी।
धर्मांतरण को हमारे देश में संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। कोई भी अपनी मर्जी से धर्मांतरण कर सकता है। यह देश धर्मांतरण का मुक्त बाजार हो सकता है, फिर देश के राजनीतिक दल धर्मांतरण को लेकर इतने परेशान क्यों हैं? वैसे इस देश में धर्मांतरण कोई नई बात नहीं है। विदेशी आक्रमणकर्ताओं ने इस देश पर काबिज होने के बाद धर्मांतरण के लिए बहुत कहर ढाए हैं, जिससे इस देश का नक्शा ही बदल गया। यदि देश में पाकिस्तान और बांग्लादेश बने तो इसका एकमात्र कारण है सदियों से हुआ धर्मांतरण। यदि इस देश सेकश्मीर अलग होना चाहता है तो इसका कारण भी धर्मांतरण है, जिसने कश्मीर का चरित्र बदल दिया है। कभी बौद्ध और शैव धर्म का केंद्र रहा कश्मीर हिन्दू बहुल से मुस्लिम बहुल हो गया। इसलिए कश्मीर घाटी में अलगावाद का बोल-बाला है। नतीजा यह है कि श्रीनगर में अभी भी मौजूद शंकराचार्य मंदिर की रक्षा सीआरपीएफ के जवान करते हैं, लेकिन दर्शनार्थी भक्त नहीं होते क्योंकि श्रीनगर में अब हिन्दू नाममात्र को बचे हैं। वहां जाकर सावरकर की यह बात बरबस याद आती है कि “धर्मांतरण ही राष्ट्रांतरण है।“ यह सही है कि कोई भी राष्ट्र धर्म के आधार पर नहीं बनाया जा सकता, लेकिन यह भी हकीकत है कि भारत में जहां भी धर्मांतरण के बादमुसलमान या ईसाई बहुसंख्यक हो गए उनका भारत के प्रति नजरिया भी बदल गया। पाकिस्तान, बांग्लादेश, कश्मीर, नगालैंड, मिजोरम इसके उदाहरण हैं।
भारत का इतिहास सबसे अलग है। भले ही मुसलमान एक जमाने में सारे भारत पर कब्जा करने में कामयाब हो गए हों, लेकिन हिन्दू इस्लामी साम्राज्यवाद से पिछले 1300 साल से संघर्ष कर रहे हैं। इस्लाम हर हथकंड़े से धर्मांतरण करने के बावजूद पूरे भारत को इस्लामी रंग से रंगने में कामयाब नहीं हो पाया। इसका मतलब यह नहीं है कि इस देश में इस्लाम को सफलता नहीं मिली। धर्मांतरणों के कारण जिन इलाकों में मुसलमान बहुसंख्यक हो गए थे वहां पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान बना। इन इलाकों में इस्लाम की विजय का परचम फहर चुका है। इसके अलावा कश्मीर घाटी धर्मांतरण के कारण मुस्लिम बहुल हो गई है, जो वहां के हिन्दू राजा के चलते भारत में जरूर है, लेकिन उसका अलगाववाद हमेशा भारत के लिए सिरदर्द बना रहा है।
भारत में हिन्दुओं को केवल इस्लामी साम्राज्यवाद ही नहीं वरन ईसाई विस्तारवाद का हमला भी झेलना पड़ा है। गोवा में पुर्तगाली ईसाई शासन ने जुल्म की इंतहा कर दी और तीस से चालीस प्रतिशत लोगों को ईसाई बनाने में कामयाबी हासिल की। 17वीं शताब्दी में पुर्तगाली शासक फ्रांसिस जेविअर को हिंदुओं को ईसाई बनाते समय उनके पूजास्थलों को, उनकी मूर्तियों को तोडऩे में अत्यंत प्रसन्नता होती थी। हजारों हिंदुओं को डरा-धमका कर, अनेकों को मार कर, अनेकों की संपत्ति जब्त कर, अनेकों को राज्य से निष्कासित कर अथवा जेलों में डालकर ईसामसीह कि भेड़ों की संख्या बढ़ाने के बदले फ्रांसिस जेविअर को ईसाई समाज ने संत की उपाधि से नवाजा था। दूसरी तरफ अंग्रेजों ने मुसलमानों की तरह राज्य का सहारा लेकर धर्मांतरण नहीं कराया, उन्होंने इसकी सुपारी ईसाई मिशनरियों को दी। अमेरिका और यूरोपीय देशों से मिशनरियां इस देश में सेवा का लिबास ओढ़ कर आईं। अंग्रेज सरकार ने उन्हें पूरा संरक्षण और प्रोत्साहन दिया। उन्हें इतनी जमीन दी गई कि आज भी इस देश में भारत सरकार के बाद सबसे ज्यादा जमीन ईसाई मिशनरियों के पास हैं। उन्हें उत्तर-पूर्व के उन इलाकों में अपना धर्मांतरण का कुचक्र चलाने की छूट दी गई, जहां बाकी लोगों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया था। यूरोपीय देशों से करोड़ों रूपया सेवा के नाम पर आने लगा। देश के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को कहना पड़ा था कि “भारत में ईसाई एक हाथ में बाइबल और दूसरे हाथ में यूनियन जैक को लेकर चल रहे थे।“
यह तो थी स्वतंत्रता से पूर्व की बातें। पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियां भारत में अपने साम्राज्य को बरकरार रखने के लिए चर्च का इस्तेमाल कर रही थीं। प्रसिद्ध गांधीवादी कर्नवालिस कुमारप्पा ने एक बार कहा था कि पश्चिमी शक्तियों कि चार सेनाएं हैं। थलसेना
, वायुसेना, नौसेना तथा चर्च। स्वयं एक ईसाई होने के बावजूद उनकी दृष्टि में चर्च और मिशनरियां अंग्रेजों कि सेना के रुप में कार्य कर रही थीं और अंग्रेजी साम्राज्य को बचाने के लिए कार्यरत थीं। धर्मांतरित ईसाइयों के मन में भारत के प्रति श्रद्धाभाव खत्म हो जाता था और वे अंग्रेजों के आज्ञाकारी सेवक बन जाते थे। यही कारण था कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में जोसेफ कुमारप्पा व ई.एम. जॉर्ज के अलावा किसी और ईसाई का नाम प्रमुखता से नहीं आता है, लेकिन इन दोनों के द्वारा स्वतंत्रता की मांग किये जाने के कारण इन्हें जान से मारने की धमकी भी दी गई थी। भारतीय ईसाइयों ने इन दोनों की न केवल निंदा की, बल्कि इनका सामाजिक बहिष्कार भी किया।