मेरे तर्कों का बहुत बड़ा भाग हिंदुओं को सम्बोधित है। इसका एक स्पष्ट कारण है, जो किसी की भी समझ में नहीं आएगा। हिन्दू बहुसंख्या में हैं इस नाते उनके दृष्टिकोण का महत्व होना ही चाहिए। उनकी आपत्तियों को, चाहे वह तर्कसम्मत हों या भावुकतापूर्ण, दूर किये बिना (हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की) समस्या का शांतिपूर्ण हल सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त, अपने तर्कों को अधिकांशतः हिंदुओं को सम्बोधित करने के कुछ विशेष कारण भी हैं जो दूसरे लोगों को पूरी तरह स्पष्ट नहीं होंगे।
मैं अनुभव करता हूँ कि जो हिन्दुजन अपने बांधवों के भाग्यों का पथ-प्रदर्शन कर रहे हैं। वे कुछ खोखले भ्रमजालों की चमक ओढ़े घूम रहे हैं जिनके परिणाम, मुझे भय है, हिंदुओं के लिए घातक सिद्ध होंगे।
हिंदुओं को यह बोध नहीं होता, यद्दपि यह अनुभव सिद्ध है कि हिन्दू व मुसलमान न तो स्वभाव में एक हैं, न आध्यात्मिक अनुभव में और न ही राजनीतिक एकता की इच्छा में, और जिन कुछ क्षणों में वे सौहार्द के से सम्बन्धों की ओर बढ़े, तब भी यह सम्बन्ध तनावपूर्ण थे। फिर भी हिन्दू इसी भ्रम को प्रसन्नतापूर्वक अपनाए रखेंगे कि पिछले अनुभवों के बावजूद, हिंदुओं व मुसलमानों में घनिष्ठता बनाने के लिए दोनों के बीच लक्ष्यों, भावनाओं व नीतियों की व्यापक एवं वास्तविक एकता की पर्याप्त मात्रा बची हुई है।
इन्हीं कारणों से मैंने अपने तर्कों का इतना बड़ा भाग हिंदुओं को सम्बोधित किया है। कपोल-कल्पित भावुकताओं और धारणाओं की मोटी, अभेद्य दीवार ने हिंदुओं तक नए प्रकाश की किरणों को पहुंचने से रोक रखा है। इसी कारण मैंने अपनी बैटरियां चालू करने की गम्भीर आवश्यकता महसूस की। मैं नहीं जानता कि इस दीवार में दरारें पैदा करके अंधेरे कमरे में प्रकाश पहुंचाने में कितना सफल हुआ हूँ। मुझे सन्तोष है कि मैंने अपना कर्तव्य निभाया है। हिन्दू यदि अपना कर्तव्य नहीं निभाते तो वे वही परिणाम भुगतेंगे जिनके लिए वे आज यूरोप पर हंस रहे हैं, और यूरोप की ही भांति नष्ट भी हो जाएंगे।
स्रोत : (डॉ. अम्बेडकर कृत “थॉट्स ऑन पाकिस्तान” के उपसंहार से, पृष्ठ 349-42)