पिछले कुछ समय से महाराष्ट्र में सत्ता के लिए जो महाभारत चल रहा था, उसमें लोकतन्त्र, संविधान, जनभावना, हिंदुत्व और राजनीतिक मूल्यों का बलिदान दिया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी हत्या की गई है और यह कहना कठिन है कि इस हत्या के लिये वास्तविक जिम्मेदार कौन है।
अंतिम चक्र में जिस प्रकार से भाजपा ने नैतिकता, संविधान और हिंदुत्व को किनारे रखकर सत्ता प्राप्त करने का दुस्साहस किया उसका दुष्परिणाम मंगलवार को सबके सामने आ गया।
यह समझ से बिल्कुल परे है कि अपने आपको शतरंज का खिलाड़ी मानने वाले अमित शाह जैसे राजनीतिक धुरन्धर भी पटखनी खा गए। यह कैसी नासमझी है कि भाजपा कर्नाटक के नाटक से भी कुछ न समझ सकी।
शरद पवार राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं, उनसे बिना सलाह-मशविरा किये अजित पवार जैसा नौसिखिया उप-मुख्यमंत्री बना दिया गया। राकांपा शरद पवार की पार्टी है न कि अजित पवार की।
इस खेल में सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को ही हुआ, वह अपने वजीर (देवेंद्र फडणवीस) को बचाने के चक्कर में शरद पवार के प्यादे (अजित पवार) से मात खा गई। दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो राकांपा ने अजित पवार को शिखंडी की तरह इस्तेमाल किया और उसकी आड़ लेकर भाजपा के भीष्म पितामह को मृत्यु शैय्या पर सुला दिया। सही मायने में भाजपा को न माया मिली न ही राम।
जहां तक प्रश्न शिवसेना का है तो उसने तो न सिर्फ लोकतांत्रिक वरन मानवीय मूल्यों और धार्मिक संवेदनाओं सहित जनभावनाओं को भी भयंकर ठेस पहुंचाई है। शिवसेना तो सही मायने में “शवसेना” बन गई है। अबू आजमी जैसे इस्लामिक राष्ट्र के पैरोकार और मुंबई ब्लास्ट के कथित आरोपियों से हाथ मिलाकर और कांग्रेस जैसी धुर हिन्दू विरोधी पार्टी के सामने घुटने टेककर उद्धव ठाकरे ने यह साबित कर दिया कि वह “दुर्योधन” से जरा भी कम नहीं हैं।
इस पूरी राजनीतिक महाभारत में शरद पवार ने श्रीकृष्ण की ही भूमिका निभाई। वह एक ऐसे योद्धा रहे जिन्होंने बिना अस्त्र-शस्त्र उठाये बड़े-बड़े योद्धाओं को पटखनी दे दी।उन्होंने सही मायने में शह और मात का खेल खेला।
यह मानना ही पड़ेगा कि महाराष्ट्र की राजनीति में आज भी शरद पवार चाणक्य ही हैं, और उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाकर उन्होंने पूरी तरह से यह सिद्ध भी कर दिखाया। कांग्रेस की भूमिका तो केवल एक मूकदर्शक की ही रही। जिसने जीतने वाले को अपनी मौन स्वीकृति दे दी।
अब भाजपा के बुरे दिन प्रारम्भ हो गए हैं, क्योंकि न तो वह जनता में जाकर शिवसेना को नँगा कर सकती है और न ही किसी पार्टी से मिलकर सत्ता की मलाई चाट सकती है।
अब उसके पास एक हारे और थके हुए खिलाड़ी की तरह मैदान से बाहर बैठने के अलावा और कोई चारा भी नहीं है।
-पंडित मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”